Atmadharma magazine - Ank 214
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : २१४
अने जलादि पदार्थ आधेय छे’–ए व्यवहार बने छे केम के एक पदार्थनो बीजा पदार्थमां अत्यन्ताभाव
होवाथी निश्चयथी बधा पदार्थो स्वतन्त्र छे, कर्ता–कर्म आदिरूप जे कोई व्यवहार होय छे ते पोतानामां ज
होय छे. बे द्रव्योना आश्रये आ जातनो व्यवहार त्रण काळमां बनी शकतो नथी तेथी ते पोतानी श्रद्धामां
आ बधा व्यवहारोने परमार्थरूपे स्वीकारता नथी. परंतु निमित्तादिनी द्रष्टिथी आ व्यवहार होय छे एम ते
जाणे छे एटलुं अवश्य छे. माटे श्रद्धानी अपेक्षाए आ बधा व्यवहारोनो कोई नयमां समावेश न होवा छतां
पण ज्ञाननी अपेक्षाए एनो असद्भूत व्यवहारनयमां समावेश थाय छे. पंचाध्यायीमां आ व्यवहारोने
स्वीकारनार नयने नयाभास कहेवानुं अने बीजे एने नयरूपे स्वीकारवानुं ए ज कारण छे.
११प. आ रीते मोक्षमार्गनी द्रष्टिथी निश्चयनय अने व्यवहारनयनुं स्वरूप शुं छे एनो विचार कर्यो.
एथी ज आपणने ए ज्ञान थाय छे के जीवनसंशोधनमां निश्चयनय शामाटे उपादेय छे अने व्यवहारनय केम
हेय छे? आचार्य कुन्दकुन्द मोक्षमार्गमां उपादेयरूपे व्यवहारनयनो आश्रय करनार जीवने पर्यायमूढ कहे छे
तेनुं कारण पण ए ज छे. तेओ प्रवचनसारमां पोतानो आ भाव व्यक्त करतां कहे छे:–
अत्थो खलु दव्यमओ दव्याणि गुणप्पगाणि भणिदानि ।
तेहिं पुणो यज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया ।। ९३।।
अर्थ:– प्रत्येक पदार्थ द्रव्यस्वरूप छे, द्रव्य गुणात्मक कहेवामां आव्यां छे अने ते बन्नेथी पर्याय थाय छे.
जे पर्यायमां मूढ छे ते परसमय छे. ९३.
११६. प्रवचनसारनी उक्त गाथा द्वारा ए ज्ञान कराववामां आव्युं छे के वस्तुस्वरूपनो निर्णय करती
वखते जेम अभेदग्राही द्रव्यार्थिक (निश्चय) नय उपयोगी छे तेवी ज रीते भेदग्राही (पर्यायार्थिक) नय पण
उपयोगी छे एमां शंका नथी. पण आ संसारी जीव अनादिकाळथी पोताना निश्चयरूप आत्मस्वरूपने भूलीने
मात्र पर्यायमूढ थई रह्यो छे अर्थात् पर्यायने ज पोतानुं स्वरूप समजी रह्यो छे. एक तो अज्ञानवश ते
पोताना स्वरूपने जाणतो ज नथी. ज्यारे जे मनुष्यादि पर्याय मळे छे तेने आत्मा मानीने ए एना ज
रक्षणमां प्रयत्नशील रहे छे. जो तेनी हानि थाय छे तो ए पोतानी हानि माने छे अने तेनी प्राप्तिमां
पोतानो लाभ माने छे. कोई समये तेने आत्माना यथार्थ स्वरूपनुं ज्ञान कराववामां आवे पण छे तोपण ते
पोतानी जूनी टेव छोडवामां समर्थ थतो नथी. फळ स्वरूपे आ जीव अनादिकाळथी पर्यायमूढ बनी रह्यो छे
अने ज्यां सुधी पर्यायमूढ रह्या करशे त्यां सुधी तेने संसारनी ज वृद्धि थया करशे. तेथी आ जीवने ते
पर्यायोमां अभेदरूप अनादिअनंत एक भाव जे चेतन द्रव्य छे तेने ग्रहण करीने अने तेने निश्चयनयनो
विषय कहीने जीवद्रव्यनुं ज्ञान कराववामां आव्युं छे अने पर्यायाश्रित भेदनयने गौण करवामां आवेल छे.
साथोसाथ अभेदद्रष्टिमां ते भेदो देखाता नथी, तेथी अभेदद्रष्टिनी द्रढ श्रद्धा कराववा माटे कहेवामां आव्युं छे
के जे पर्यायनय छे ते व्यवहार छे, अभूतार्थ छे अने असत्यार्थ छे. ते मोक्षमार्गमां अनुसरवा योग्य नथी
अर्थात् मोक्षमार्गमां लक्ष्यरूपे स्वीकारवा योग्य नथी. ए ज रीते निमित्तादिनी अपेक्षाए जे व्यवहारनी
प्रवृत्ति थाय छे ते पण उपचरित होवाथी मोक्षमार्गमां अनुसरवा योग्य नथी. जो के ए तो अमे मानीए
छीए के निमित्तादिनी अपेक्षाए लोकमां जे व्यवहार थाय छे ते उपचरित होवा छतां पण ईष्ट अर्थनो बोध
कराववामां सहायक बने छे. जेम ‘घीनो घडो’ कहेतां ते ज घडानी श्रद्धा थाय छे के जेमां घी भरवामां आव्युं
छे, अथवा तो ‘कुंभारने बोलावी लावो’ एम कहेतां ते ज मनुष्यनी प्रतीति थाय छे के जे घडानी उत्पत्तिमां
निमित्त होय छे. परंतु आ व्यवहारने मोक्षमार्गमां उपादेयरूपे स्वीकारतां स्वावलंबी वृत्तिनो अंत आवीने
मात्र परावलंबी वृत्तिने ज आश्रय मळे छे. माटे अभूतार्थ (असत्यार्थ) होवाथी ए व्यवहार पण
अनुसरवा योग्य मानवामां आव्यो नथी.
११७. अहीं एम समजवुं जोईए के जेणे अभेदद्रष्टिनो आश्रय करीने पर्यायद्रष्टि अने उपाचारद्रष्टिने
हेय समजी लीधी छे ते पोतानी श्रद्धामां तो एम ज माने