श्रावण : २४८७ : १३ :
छे के एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कर्ता वगेरे त्रणकाळमां थई शकतुं नथी. जे मारी संसार पर्याय थई रही छे तेनो
कर्ता एक मात्र हुं छुं अने मोक्ष पर्याय हुं ज मारा पुरुषार्थथी प्रगट करीश. एमां बीजा पदार्थो अकिंचित्कर
छे. छतां पण ज्यांसुधी तेना विकल्प ज्ञाननी प्रवृत्ति थया करे छे त्यांसुधी तेने ते भूमिकामां स्थित रहेवाने
माटे अन्य सुदेव, सुगुरु अने आप्त उपदिष्ट आगम वगेरे निमित्त होय छे. त्यारे तो तेमना मुखमांथी आवी
वाणी नीकळे छे –
“मुझ कारज के कारण सु आप,
शिव करहु हरदु मम मोहताप”
आचार्य कुन्दकुन्दे पण आज भाव व्यक्त करतां समयप्राभृतमां कह्युं छे :–
सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरिसीहिं ।
ववहार देसिया पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे ।। १२।।
जे शुद्धनय सुधी पहोंचीने श्रद्धा साथे पूर्णज्ञान अने चारित्रवान थई गया छे तेमने तो शुद्ध
(आत्मा) नो उपदेश करनार शुद्धनय जाणवा योग्य छे अने जे अपरम भावमां अर्थात् श्रद्धा, ज्ञान चारित्रना
पूर्णभावने नहि पहोंचेला साधक अवस्थामां ज स्थित छे ते व्यवहार द्वारा उपदेश करवा योग्य छे. १२.
११८. आशय ए छे के जेओ अभेद रत्नत्रयरूप अवस्थाने पाम्या छे तेमने पुद्गल संयोगना
निमित्तथी थती अनेकरूपताने कहेनार–बतावनार व्यवहारनय कांई कामनो नथी. परंतु अशुद्धनयनुं कथन
यथा पदवी विक्ल्प दशामां ज्ञान कराववा माटे प्रयोजनवान छे एटलुं अवश्य छे. तात्पर्य ए छे के अनुत्कृष्ट
(मध्यम) भावनो जे अनुभव करे छे ते साधक जीवने परिपूर्ण शुद्धनय (केवळज्ञान) नी प्राप्ति न थाय त्यां
सुधी श्रद्धामां स्वभाव द्रष्टिनी ज मुख्यता रहे छे. ते भूल्ये चूकये पण व्यवहारद्रष्टिने उपादेय मानतो नथी.
व्यवहारधर्मरूप प्रवृत्ति होवी ए बीजी वात छे अने व्यवहारधर्मने आत्मकार्य अथवा मोक्षमार्ग मानवो ए
बीजी वात छे. सम््यग्द्रष्टि मोक्षमार्ग तो स्वभावद्रष्टिनी प्राप्ति अने तेमां स्थितिने ज माने छे. जो एने आ
द्रष्टि न रहे तो ते सम्यग्द्रष्टि ज होई शके नहि ए ज कारण छे के मोक्षमार्गमां व्यवहारद्रष्टि आश्रय करवा
योग्य नथी एम कहेवामां आव्युं छे.
११९. आ वात जरा विचित्र तो लागे छे के स्वभावद्रष्टिना सद्भावमां सम्यग्द्रष्टिनी प्रवृत्ति प्राथमिक
अवस्थामां रागरूप होय छे, परंतु एमां विचित्रतानी कोई वात नथी. केम के जेवी रीते कोई विद्यार्थीने
भणवानुं लक्ष्य होवा छतां पण ते सुवे छे, खाय छे, हाले चाले छे, अने मनोविनोदनां बीजा कार्यो पण करे छे
छतां पण ते पोताना लक्ष्यथी च्युत थतो नथी तेवी ज रीते सम्यग्द्रष्टि जीव पण मोक्षनी उपायभूत
स्वभावद्रष्टिने ज पोतानुं लक्ष्य बनावे छे. कोईवार तेने रागना आश्रये साचा देव, गुरु अने शास्त्रनी
उपासनाना भाव थाय छे, कोई वार धर्मोपदेश आपवा अने सांभळवाना भाव थाय छे, कोई वार निर्वाहना
साधनो मेळववाना भाव थाय छे अने कोई वार अन्य भोजनादि कार्योमां पण तेनी रुचि थाय छे छतां पण
ते पोताना ध्येयथी च्युत थता नथी. जो ते पोताना ध्येयथी च्युत थईने बीजा कार्योने ज उपादेय मानवा लागे
तो जेवी रीते लक्ष्यने चूकतो विद्यार्थी कदी पण विद्या मेळववामां सफळ थतो नथी तेवी ज रीते मोक्ष प्राप्तिनी
उपायभूत स्वभावद्रष्टिथी च्युत थतो सम्यग्द्रष्टि कदी पण मोक्षरूप आत्मकार्य साधवामां सफळ थतो नथी अने
त्यारे तो जेम विद्याप्राप्तिरूप लक्ष्यथी च्युत थयेल विद्यार्थी विद्यार्थी रहेतो नथी तेवी ज रीते मोक्षप्राप्तिनी
उपायभूत स्वभावद्रष्टिथी भ्रष्ट थयेल सयग्द्रष्टि सम्यग्द्रष्टि ज रहेतो नथी. माटे अहीं एम समजवुं जोईए के
सम्यग्द्रष्टिने व्यवहारनय ज्ञान कराववा माटे यथापदवी प्रयोजनवान होवा छतां पण ते मोक्षकार्यनी सिद्धिमां
रंच मात्र पण आश्रय करवा योग्य नथी. आचार्योए ज्यां पण व्यवहारद्रष्टिने बंधमार्ग अने स्वभावद्रष्टिने
मोक्षमार्ग कह्यो छे त्यां आ ज अभिप्राय कह्यो छे. एनो जो कोई एम अर्थ करे के आ रीते व्यवहारद्रष्टि
बन्धमार्ग सिद्ध थतां न तो सम्यग्द्रष्टिने देवपूजा, गुरुसेवा दान अने उपदेश वगेरे देवाना भाव ज थवा
जोईए तेम