Atmadharma magazine - Ank 214
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : २१४
ज न एने व्यवहारधर्मरूप प्रवृत्ति ज होवी जोईए. तो एनो आवो अर्थ करवो बराबर नथी केम के
सम्यग्द्रष्टिने स्वभावद्रष्टि होवा छतां पण रागरूप प्रवृत्ति थती नथी एम तो कही शकातुं नथी कारण के ज्यां
सुधी तेने रागांश विद्यमान छे त्यांसुधी तेने रागरूप प्रवृत्ति थती रहे छे अने ज्यांसुधी तेने रागरूप प्रवृत्ति थती
रहे छे त्यांसुधी तेना फळरूपे देव पूजादि व्यवहारधर्मनो उपदेश देवाना भाव पण थतां रहे छे अने ते रूप
आचरण करवाना पण भाव थतां रहे छे. छतां पण ते पोतानी श्रद्धामां तेने मोक्षमार्ग मानता नथी तेथी तेना
कर्ता थता नथी.
१२०. आगममां सम्यग्द्रष्टिने अबंधक कह्या छे ते स्वभावद्रष्टिनी अपेक्षाए ज कहेल छे, रागरूप
व्यवहारधर्मनी अपेक्षाए नहि. सम्यग्द्रष्टि एक ज काळे बंधक पण छे अने अबंधक पण छे. ए विषयने
स्वयं आगममां स्पष्ट करवामां आवेल छे. अमृतचंद्राचार्य पुरुषार्थसिद्धि उपायमां कहे छे :–
येनांशेन सुद्रष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। २१२।।
येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति
येनांशेन तुं रागस्तेनांशेनाय बन्धनं भवति ।। २१३।।
येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। २१४।।
अर्थ:– जे अंशथी आ जीव सम्यग्द्रष्टि छे ते अंशथी तेने बन्धन नथी, पण जे अंशथी राग छे ते
अंशथी तेने बन्धन छे. २१२ जे अंशथी आ जीव ज्ञान छे ते अंशथी तेने बंधन नथी, पण जे अंशथी राग
छे ते अंशथी तेने बंधन छे. २१३ जे अंशथी आ जीव चारित्र छे ते अंशथी तेने बंधन नथी, पण जे
अंशथी राग छे ते अंशथी तेने बंधन छे. २१४
१२१. आ रीते निश्चयनय अने व्यवहारनयना विवेचनथी ए निर्णय थई जतां के मोक्षमार्गमां मात्र
निश्चयनय केम उपादेय छे अने यथापदवी जाणवा माटे प्रयोजनवान होवा छतां पण व्यवहारनय केम उपादेय नथी,
अहीं एना आश्रये उपदेश देवानी पद्धतिनी मीमांसा करवानी छे. ए तो अमे पहेलां ज बतावी आव्या छीए के
निश्चयनयमां अभेदकथननी मुख्यता होवाथी ते परथी भिन्न ध्रुवस्वभावी एकमात्र आत्माने ज स्वीकारे छे.
१२२. असलमां परनुं पेट घणुं मोटुं छे. तेमां स्व आत्मा सिवाय अन्य द्रव्यो पोताना गुण–पर्याय सहित
तो समायेला छे ज, साथो साथ जेमने व्यवहार नय (पर्यायार्थिकनय) स्वात्मारूपे स्वीकारे छे ते पण आ नयमां
पर छे, तेथी निश्चयनय स्वात्मारूपे न तो गुणभेदने स्वीकारे छे, न पर्यायभेदने स्वीकारे छे अने न निमित्ताश्रित
विभावभावोने पण स्वीकारे छे. संयोग उपर एनी द्रष्टि ज नथी. ए बधा एनी द्रष्टिमां पर छे तेथी ते आ बधा
विकल्पोथी रहित अभेदरूप अने नित्य एकमात्र ज्ञायकस्वभाव आत्माने ज स्वीकारे छे.
११३. कार्यकारण पद्धतिनी अपेक्षाए विचार करतां ज्यारे ते ज्ञायक स्वभाव आत्मा सिवाय बीजा
बधाने पर माने छे त्यारे ते बीजाना आश्रये कार्य थाय छे ए द्रष्टिकोणने केवी रीते स्वीकारी शके अर्थात् न
स्वीकारी शके, तेथी तेनी अपेक्षाए एक मात्र ए ज प्रतिपादन करवामां आवे छे के जे कोई पण कार्य थाय छे
ते पोताना उपादानथी ज थाय छे. ते ज तेनो निज भाव छे अने ते ज पोताना परिणमनरूप सामर्थ्यद्वारा
कार्यरूप परिणमे छे. निमित्त छे अने ते बीजानुं कांई करे छे ए कथन एने मान्य ज नथी. ए तो निश्चयनयनी
तत्त्वविवेचननी पद्धति छे. पण व्यवहारनयनी तत्त्वविवेचननी पद्धति एनाथी भिन्न प्रकारनी छे. ए गुणभेद
अने पर्यायभेदरूप तो आत्माने स्वीकारे ज छे. साथो साथ जे विभावभाव अने संयोगी अवस्था छे ते रूपे
पण आत्माने माने छे. आ नयनुं बळ निमित्तो पर अधिक छे, तेथी आ नयनी अपेक्षाए आ कार्य आ
निमित्तोथी थयुं एम कहेवामां आवे छे. आ कथन आ ज नयमां शोभे छे के ‘जो निमित्त न होय तो कार्य पण
नहि थाय,’ निश्चयनयमां नहि. निश्चयनयथी तो एम ज कहेवामां आवशे के ज्यांसुधी निश्चयरत्नत्रयनी
प्राप्ति थती नथी त्यांसुधी पूर्वना कोई पण भावने व्यवहार रत्नत्रय कहेवा ते बराबर नथी. अने