Atmadharma magazine - Ank 214
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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श्रावण : २४८७ : १प :
ज्यारे निश्चयरत्नत्रयनी प्राप्ति थई जाय छे त्यारे तेनी पहेलां जे नवतत्त्वोनी श्रद्धा, अने ज्ञान आदि भाव
होय छे तेने पण भूत नैगमनयथी व्यवहार रत्नत्रय कहेवाय छे. कारण के ज्यांसुधी निश्चय प्रगट थतो नथी
त्यांसुधी व्यवहार कोनो?
१२४. अभव्योए अनंतवार द्रव्य मुनिपद धारण कर्युं पण एमनुं चित्त रागमां अटकी रहेवाथी
तेमने ईष्ट अर्थनी प्राप्ति थई नहि. माटे व्यवहार रत्नत्रय कार्यसिद्धिमां वस्तुत: साधक छे एवी श्रद्धा छोडीने
त्रिकाळी द्रव्यस्वभावनी उपासना वडे निश्चय रत्नत्रयनी प्राप्ति करवी जोईए. आ जीवने निश्चय रत्नत्रयनी
प्राप्ति थतां व्यवहार रत्नत्रय होय ज छे. तेने प्राप्त करवा माटे जुदो प्रयत्न करवो पडतो नथी. व्यवहार
रत्नत्रय स्वयं धर्म नथी, निश्चय रत्नत्रयना सद्भावमां तेना उपर धर्मनो आरोप कराय छे एटलुं अवश्य
छे. तेवी ज रीते रूढिवशे जे जे कार्यनुं निमित्त कहेवाय छे तेना सद्भावमां पण त्यांसुधी कार्यनी सिद्धि थती
नथी के ज्यां सुधी जे कार्यनुं ते निमित्त कहेवामां आवे छे तेने अनुरूप उपादाननी तैयारी न होय. माटे
कार्यसिद्धिमां निमित्तोनुं होवुं अकिंचित्कर छे.
१२प. जे संसारी प्राणी निमित्तो मेळववाना भाव तो करे छे पण उपादाननी संभाळ करता नथी तेओ
ईष्टार्थनी सिद्धिमां सफळ थता नथी अने अनंत संसारना पात्र बनी रहे छे. माटे निमित्त कार्यसिद्धिमां साधक
छे एवी श्रद्धा छोडीने पोताना उपादानने मुख्यरूपे लक्षमां लेवुं जोईए. उपादाननी योग्यता थतां निमित्त मळे
ज छे, तेने मेळववां पडतां नथी निमित्त पोते कार्यसाधक नथी, परंतु उपादान कार्यने अनुरूप व्यापार करतां जे
बाह्य सामग्री तेमां हेतु थाय छे तेमां निमित्तपणानो व्यवहार करवामां आवे छे. निमित्त–नैमित्तिकभावनी आ
व्यवस्था अनादिकाळथी बनी रही छे. कोई तेमां फेरफार करी शकतुं नथी. तेथी ज प्रत्येक कार्य स्वकाळे उपादान
अनुसार पोताना पुरुषार्थथी थाय छे ए ज श्रद्धा करवी हितकारी छे. आ रीते बन्ने नयोनी अपेक्षाए विवेचन
करवानी आ पद्धति छे माटे ज्यां जे नयनी अपेक्षाए विवेचन करवामां आव्युं होय तेने ते ज रूपे ग्रहण करवुं
जोईए. तेमां अन्यथा कल्पना करवी ते उचित नथी. निश्चयकथन यथार्थ छे अने व्यवहार कथन उपचरित
(अयथार्थ) छे, माटे उपचरित कथनथी द्रष्टिने हठाववा माटे जो वक्ता मोक्षप्राप्तिमां परम साधक
निश्चयरत्नत्रयनी द्रष्टिथी तत्त्वनुं विवेचन करे छे तो तेनाथी व्यवहारधर्मनो केवी रीते लोप थाय छे ए
अमारी समजमां आवतुं नथी. ज्यारे वस्तुस्थिति आवी छे के निश्चयरत्नत्रयने अनुरूप तत्त्वनो निर्णय थई
जतां तेनी भूमिका प्रमाणे उपासना करनार व्यक्तिनी जे व्यवहार धर्मरूप प्रवृत्ति होय छे ते शुभरूप पुण्यवर्धक
ज होय छे. प्राय: अशुभमां तो तेनी प्रवृत्ति थती ज नथी. आ रीते निश्चयनय अने व्यवहारनय शुं छे, ते
अनुसार तत्त्वविवेचननी पद्धति शुं छे अने मोक्षमार्गमां निश्चयनय शा माटे आश्रय करवा योग्य छे अने
व्यवहारनय केम आश्रय करवा योग्य नथी एनो सांगोपांग ऊहापोह कर्यो.
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