छे. माटे हे सिद्धपदना साधक! प्रथम प्रयत्न वडे तुं भावने जाण. सम्यग्दर्शनादि भावोरूप मोक्षमार्ग महा
प्रयत्न वडे सिद्ध थाय छे. एक जग्याए गुरु शिष्यने कहे छे के: हे शिष्य! भगवाननी आज्ञामां आळस तने
न हशो, अने भगवाननी आज्ञा बहार प्रवर्तन तने न हशो. हवे भगवाननी आज्ञा शुं छे? भगवाननी
आज्ञा तो स्वभाव–सन्मुख प्रयत्न करवानी छे. सम्यग्दर्शन पण प्रयत्न वगर थतुं नथी. चिदानंद स्वभाव
तरफना अपूर्व प्रयत्नथी ज मोक्षमार्ग सधाय छे. क्रमनियमितपर्याय छे माटे पुरुषार्थ नथी–एम नथी.
क्रमनियमितनो निर्णय करनार जीव पण ज्ञानस्वभावनी सन्मुखतापूर्वक ज ते निर्णय करी शके छे, ने तेमां
स्वसन्मुख प्रयत्न आवी ज जाय छे.
सम्यग्दर्शनादि भावोने प्रयत्नथी जाण. एना वगर द्रव्यलिंगवडे कांई पण साध्य नथी, एटले के सम्यग्दर्शन
वगर पंचमहाव्रतादि पण निष्फळ छे, तेना वडे शिवपुरीमां पहोंचातुं नथी, ते शिवपुरीनो मार्ग नथी.
ज्ञान–चारित्रनी ज मोक्षमार्ग तरीके उपासना सर्व अर्हंतोए करी छे, ने ते ज मोक्षमार्ग उपदेश्यो छे. माटे हे
जीव! पुरुषार्थवडे तुं आवा मोक्षमार्गने जाण.
पंथने जाण. मोक्षनो पंथ देहनी क्रियामां नथी, रागमां नथी, पण सम्यग्दर्शनप्रधान एवुं जे भावलिंग ते ज
मोक्षनो पंथ छे सर्व भावोमां सार एवो जे शुद्धभाव–एटले सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र, ते ज परम हितरूप
छे, एवा भावने हे पथिक! तुं प्रयत्नवडे साध. आवा शुद्धभाव वगर रे जीव! तें अनंतवार बाह्यलिंगो
ग्रह्यां ने छोड्यां. आचार्यदेव करुणाथी कहे छे के हे सत्पुरुष! शुद्धभावने जाण्या वगर आ संसारमां
परिभ्रमण करतां ते मनुष्य थईने अनंतवार निर्ग्रंथ रूप अने पंचमहाव्रत अंगीकार कर्या ने छोड्या, छतां
शुद्धभाव वगर तारुं कल्याण न थयुं, ने तुं चार गतिमां भमतो ज रह्यो. जे हित साधवा