Atmadharma magazine - Ank 214
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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श्रावण : २४८७ : :
मागे छे तेने संबोधीने आचार्यदेव कहे छे के हे सत्पुरुष! तुं शुद्धभाव वगर चारगतिमां घणा घणा भीषण
दुःख पाम्यो. माटे हे जीव! हवे तो सम्यग्दर्शन प्रगट करीने तुं जिनभावना भाव!
भयंकर नरकगतिमां, र्त्यिंचगतिमां, कुदेव अने कुमनुष्योमां भीषण दुःखो जीवे भोगव्या–केम? के
जिनभावना वगर! माटे हे जीव! हवे तो तुं दुःखथी छूटवा जिनभावना भाव! चैतन्यसन्मुख थईने निश्चय
सम्यग्दर्शनादिनी आराधना कर.
लक्ष्मण जेवा अर्धचक्री राजा, देवो जेना सहायक अने मित्रो, जेना वैभवनो पार नहीं,–ते अत्यारे
नरकमां छे, सीताजी प्रतीन्द्र थया छे ते नरकना भीषण दुःखोथी लक्ष्मणने उगारवा जाय छे, पण ए दुःखथी
देव पण जेने उगारी न शक््या, जेवा बहार लई जवा माटे उपाड्या के तेनुं शरीर पारानी जेम वेरविखेर
थई गयुं; –एवा नरकना दुःख अनंतवार जीवे भोगव्या. तिर्यंचमां भूंड वगेरेने जीवतेजीवतां आखा ने
आखा शेकी नाखे एवा एवा भीषण दुःखो भोगव्या; अज्ञानथी जराक पुण्य बांधे ने हलको देव थाय त्यां
देवगतिमां अपमानादि भयानक दुःखो भोगवे छे. धर्मनो अनादर अने अधर्मनो आदर करीने, कदाच जराक
पुण्यथी देव थयो तो त्यां मोटा देवोना हुकमथी हाथी–घोडाना रूप धारण करवा पडे ने तेना उपर बीजा देवो
सवारी करे, ए ज रीते मनुष्यमां पण आत्मभान वगर जीव महादुःखो पाम्यो. माटे हे जीव! तुं
जिनभावना भाव! जिनभावना एटले शुद्ध आत्मानी भावना. ए जिन भावनानी वात हजी घणीवार
(गाथा ६८, ७र, ८८, १३० वगेरेमां) आवशे. आहा! जिनभावना तें संसारना सर्व दुःखथी छूटवानो
उपाय छे; हे जीव! तुं जिनभावना वगर चार गतिना अनंत दुःख पाम्यो. माटे हवे तो जिनेश्वरदेवना
मार्गनुं शरण लईने, भगवाने कहेला शुद्धात्मानी भावना भाव. शुद्धात्मानी वारंवार भावना करवी तेनुं
नाम जिनभावना छे, तेनाथी संसारभ्रमण छूटीने मुक्ति थाय छे.
अरे, हजी तो जेने संसारनी चार गतिमां दुःख पण न लागतुं होय, संसारमां ज सुख लागतुं होय
एवा जीवो जिनभावना क्यांथी भावे? बहारनी अनुकूळता होय त्यां जाणे के सुखी थई गया. पण भाई!
जराक अंदरना भावने तो तुं जो! अंदर तो आकुळतानी मोटी आग लागी छे. जेम जमीननी अंदर
(झरीयानी खाण वगेरेमां) मोटी आग लागे ते बहारथी न देखाय, तेम अंदरमां आत्माना भान वगर
दुःखनी मोटी आग लागी छे, ते दुःखने अज्ञानी देखतो नथी, तो तेनाथी छूटवानो प्रयत्न क्यांथी करे? अहीं
तो कहे छे के हे सत्पुरुष! हे शिवपुरीना पथिक! जिनभावना वगर संसारमां एकांतदुःख छे–एम जाणीने
तेनाथी छूटवा माटे तुं जिनभावना भाव.
हे जीव! सात नरकभूमिमां दारुण–भयानक तीव्र दुःखो ते भोगव्या!–केटलो काळ? ३३ सागरोपम!
एटले? दस क्रोडाक्रोडी पल्योपमनो एक सागरोपम थाय; अने एकेक पल्योपममां असंख्य अबजो वर्ष थाय.
अत्यारे आंकडानी गणतरी पण अघरी पडे छतां एटला काळना दुःखो जीवे नरकमां अनंतवार भोगव्या.
एक क्षण पण ज्यां चेन नथी तीव्र भूख छतां करोडो अबजो वर्ष सुधी अनाजनो कण ज्यां मळतो नथी,
दरियाना पाणी पी जाउं–एवी अत्यंत तृषा छतां पीवाना पाणीनुं टीपु्रंय अबजो वर्ष सुधी मळतुं नथी, ज्यां
टाढ के ताप एवा छे के अहीं तेनो एक कणियो आवे तो घणा माणसो मरी जाय! दुर्गंध एवी के अहीं तेनो
कणियो आवे तो तेनी दुर्गंधथी घणा योजनना माणसो मरी जाय!–पण जीवे एवा नरकना दुःखो अनंतवार
भोगव्या. मरीने ते दुःखथी छूटवा मागे पण आयुष पूरुं थया पहेलां मरी न शके, एवा दुःखो असह्यपणे
अनंतवार भोगव्यां. सम्यग्दर्शन वगर हे जीव! तुं आवा भीषण दुःखो पाम्यो, माटे हवे तो सम्यग्दर्शनरूप
भावने ओळखीने तेनो प्रयत्न कर.
वळी तिर्यंचगतिमां पण हे जीव! तुं अनंतवार दुःख पाम्यो. पृथ्वीकायमां जन्मीने कोदाळी वगेरेथी
खोदायो; अपकायपणे जन्म्यो त्यां अग्निथी ऊकळ्‌यो,–जेने वाचा नथी, जेने जीभ नथी, नाक नथी, आंख नथी,