Atmadharma magazine - Ank 214
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : २१४
कान नथी; अरे, स्वतंत्र शरीर पण जेने नथी, अनंता जीवो वच्चे एक ज शरीर, बटेटा, सकरकंद वगेरेनी एक
कणीमां असंख्य शरीरो छे ने एकेक शरीरमां अनंता जीवो छे. तेमां जन्मीने अनंतवार अग्निमां बफायो.
चिदानंद तत्त्वने साथे ने साथे राखीने चारगतिमां भम्यो पण तें तारा चिदानंदतत्त्वने ओळख्युं नहीं.
एकेन्द्रिय वगेरेमां तो नरक करतां य अनंतगणुं दुःख छे. पाणीरूपे जन्म्यो ने भाजीमूळारूपे पण जन्म्यो.
बापु! तारा दुःख तो तें भोगव्यां ने भगवाने जाण्या. एवा दुःखोथी छूटवाना टाणा हवे आव्या छे, माटे हवे
तुं ऊंधी रहीश मा! सम्यग्दर्शनादि भावोने ओळखीने प्रयत्नवडे ते प्रगट करजे! अरे, तुं जगतनो साक्षी
ज्ञानआनंदथी भरेलो, ते अज्ञानथी संसारनी चारगतिमां आवा भयानक दुःखने पाम्यो, हवे तो आत्माने
ओळखीने तेनी भावना भाव! हवे तो जिनमार्गनुं शरणुं ले! अग्निकाय पवनकाय के वनस्पतिकायमां
एकेन्द्रियपणे जन्मीने महादुःख पाम्यो. शास्त्रोथी छेदायो, अग्निथी बफायो–काचेकाचो खवायो,–एवा अनंत
प्रकारना दुःखो पाम्यो;–एक सम्यग्दर्शनरूपी भाव वगर! सम्यग्दर्शनरूपी जिनभावना ते सर्वदुःखोथी छूटवानो
परम उपाय छे. एकेन्द्रियमांथी अनंतकाळे बहार नीकळीने त्रसकाय पामीने विकलेन्द्रिय थयो–ईयळ, कीडी,
मकोडा वगेरेमां अवतर्यो, त्यां पण छेदायो, भेदायो; त्यां मन नहि, चैतन्यशक्ति घणी हारी गयेलो, ने महा
दुःखो पाम्यो. कदीक पंचेन्द्रिय तीर्यंच थयो तो त्यां पण तीव्र वेदना, भूख, तृषा वगेरेना दुःख पाम्यो.
अनादिकाळथी तें दुःख–दुःख ने दुःख ज वेद्यां छे, सुखनी कणिका पण तुं पाम्यो नथी. ते दुःखोथी छूटवा अने
आत्मानुं सुख पामवा तुं जिनभावना भाव! आत्माने भूलीने रागद्वेषनी मलिनतामां रगदोळाईने तुं दुःख
पाम्यो अरे, आत्मानी सन्मुख थाउं तो सम्यग्दर्शनादि थाय ने तो ज दुःखोथी छूटाय–एवी वात पण प्रीतिथी
कदी सांभळी नथी. माटे हवे अनंतकाळना दुःखथी छूटवानो आ अवसर आव्यो छे, हवे तो ते दुःखथी
छूटवानो मार्ग ले! भाई! जेमां दुःखनी गंध पण नथी एवा आत्मस्वभावनी रुचि कर, प्रीति कर, ओळखाण
कर–जेथी दुःखोथी तारो छूटकारो थाय.
हे जीव! भवनो नाश करनारी भावना तें पूर्वे कदी भावी नथी, अने तेथी चार गतिना भवोमां
अनंतकाळथी तुं दुःख पाम्यो. नरक–तिर्यंचना अनंत दुःख पाम्यो; अनंतकाळे क््यारेक मनुष्य थयो त्यारे पण
आकस्मिक, शारीरिक मानसिक अने साहजिक–एटले विषयवांछा वगेरेना तीव्र दुःखो निरंतर भोगवी रह्यो
छे. चैतन्यमां शांति अने परमात्मपद पड्युं छे तेना तरफ झूकीने जिनभावना भावे तो दुःखनो नाश थाय.
चैतन्यने चूकीने अनेक प्रकारना विषयोनी वांछा करे पण ईष्ट विषयो तो मळे नहि, एटले आकुळताथी
दुःखी दुःखी थाय छे. प्रथम तो नव मास सुधी माताना पेटमां संकोचाईने रह्यो तेमां दुःख पाम्यो; कोईने
माता–पितानुं दुःख, कोईने स्त्री–पुत्रनुं दुःख, कोईने शरीरनुं दुःख, कोईने मननुं दुःख–एम बाह्यवलणमां
एकांत दुःख, दुःख ने दुःख ज छे; अंतर वलणमां ज सुख छे. राजाओ पण सुखी नथी, सुखी तो संत–
धर्मात्मा मुनिवरो छे. जिनभावनाथी जेणे सम्यग्दर्शनादि प्रगट कर्या छे तेओ ज आ जगतमां खरेखर
खरेखर सुखी छे. माटे हे भाई! हवे तो तुं जिनभावना भाव, के जेथी तारा भवदुःखनो नाश थाय.
वळी सुरलोकमां देव थयो त्यारे पण जीव अनेक प्रकारना मानसिक दुःखो पाम्यो. आचार्यदेव कहे छे
के हे महाजस! स्वर्गमां पण चैतन्यनी भावना वगर एकलुं दुःख ज छे. नानो देव थाय तो बीजा मोटी
ऋद्धिवाळा देवोने देखीने अंतरमां ईर्षाथी बळतरा थाय. अप्सरा वगेरेनो वियोग थतां दुःख थाय.
शुद्धभाव–सम्यग्दर्शनादि प्रगट कर्या वगर द्रव्यलिंगी साधुपणुं पाळे ने स्वर्गमां जाय तो त्यां पण आ ज
हालत छे, विषयोनो लोभी थईने दुःखमां झूले छे, चैतन्यमां झूलनारा संतो ज सुखी छे.
हे जीव! द्रव्यलिंगी मुनि थईने पण जो कांदर्पि वगेरे अशुभभावनाओ भावे छे अने सम्यक्त्वादिनी
भावना भावतो नथी, ते भावोने ओळखतो पण नथी तो धर्मभावना वगर तुं संसारमां ज परिभ्रमण
करीश. जे द्रव्यलिंगी थईने पण ईर्षाळुता वगेरे अशुभभावना भावे छे ते ढोलकां वगाडनार हलका देव–
व्यंतर–भूतडां