Atmadharma magazine - Ank 214
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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श्रावण : २४८७ : :
वगेरे थईने संसारमां रखडे छे.
मुनिनो भेष धारण करीने पण जे जीव चैतन्यनी दरकार करतो नथी, धर्मभावना जाणतो नथी, ने
मकान बांधीने रहे, मठ स्थापे, एवाने पार्श्वस्थ कहेवाय छे, ते कुसाधु छे. वळी जे जीव साधु नाम धरावीने
तीव्र कषायने आधीन थईने व्रतादिथी भ्रष्ट थाय, संघमां बीजा मुनिओनो तथा धर्मात्मानो अनादर करे ते
कुशील छे. साधु नाम धरावीने जे ज्योतिष–वैदिक मंत्रविद्या वगेरे साधनथी आजीविका करे, राजानो सेवक
थईने राजखटपटमां उतरे–एने संसक्त कहे छे. जिनसूत्रथी विरुद्ध वर्तन करे, चारित्रथी भ्रष्ट वर्ते एवा
आळसु भ्रष्ट साधुने अवसन्न कहे छे; अने गुरुनी आज्ञा बहार, मिथ्या स्वच्छंदपूर्वक एकलो वर्ते, जिनआज्ञा
लोपे–एवा भेषधारी साधु ते मृगाचारी छे–आवा पंचविध कुसाधुओ सम्यग्दर्शनादिरूप जिनभावनाथी भ्रष्ट
थईने अशुभभावनाओ भावे छे, तेओ दुःखने ज पामे छे. साधु वेष धार्यो तेथी कांई जिनभावना वगर
सुखी थई जाय–एम बनतुं नथी. सम्यग्दर्शन वगर अनंतवार एवा भेष धार्या, पण भवनो अंत न आव्यो.
सम्यग्दर्शनादिनी आराधना वगर देव थयो त्यारे पण महाऋद्धिवाळा देवोने देखीने मनमां महादुःख
पाम्यो. चैतन्यऋद्धिनुं माहात्म्य जाण््युं नहि ने स्वर्गादिना वैभवना महात्म्यमां मूर्छाईने बहु मानसदुःख
पाम्यो. आ तो बहारना व्यक्त दुःखोनुं वर्णन छे, आकुळता होय त्यारे पण अंतरमां आकुळताथी एकला
विकारने ज वेदतो थको अज्ञानी जीव पण दुःखी ज छे. सुखसागर आत्मा तरफ ज्यां वलण नथी त्यां दुःख
ज छे,–भले अनुकूळ संयोग हो के प्रतिकूळ हो.
वळी मुनि थईने तपश्चरणादि करवा छतां चार प्रकारनी विकथामां तत्पर एवो जीव धर्मभावना
भूलीने विकथाथी हलको कुदेव थाय छे. विकथा तो पाप छे. पण व्रत–तपना कांईक शुभभाव भेगा हता तेथी
कुदेव थयो. चैतन्यनी वीतरागी कथानो तो रस नथी ने स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा के भोजनकथा तेमां
रसथी वर्ते छे,–ते भले मुनि थईने व्रतादि पाळे–तोपण हलको देव थईने दुःखने ज पामे छे. अरे जीव!
चैतन्यनी महत्ताने भूलीने तुं आहारादिनी तूच्छ कथामां क््यां पड्यो?
वळी मुनि थईने पण चैतन्यने भूलीने, देहबुद्धिथी जातिमद, कुळमद, रूपमद, जाणपणानो मद,–एम
अनेक प्रकारना अभिमानमां प्रवर्ते ने एवा मदसहित तपश्चरणादि करे तो हलका देवमां जन्मे ने त्यां पण
ईर्षाथी हालकडोलक थईने आकुळव्याकुळपणे दुःखी ज थाय.
धर्मात्मा स्त्रीवेद छेदीने मोटो देव के ईन्द्र थाय, ने अज्ञानी मोटो त्यागी थईने पण हलको देव थाय–त्यां
ईर्षाथी बळे. देवमांथी वळी आयुष्य पूरुं थतां माताना गर्भमां घणा काळ सुधी रहीने महादुःख पाम्यो. आवा
दुःखो अज्ञानथी पाम्यो. ते दुःखोथी छूटवा माटे हे जीव! तुं सम्यग्दर्शनादि भावोने ओळखीने तेनी भावना
कर...
शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप एवो जे तारो आत्मा तेनी सन्मुख थईने जिनभावना भाव. निजभावना ते ज
जिनभावना छे, केमके “जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहीं कांई” जेवुं शुद्धजिनपद छे तेवुं ज शुद्ध
निजपद छे, तेनी भावनाथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप भाव प्रगटे छे, ने तेनाथी ज भवभवनां दुःखोनो
अंत आवीने परमसुखनी प्राप्ति थाय छे. माटे फरीफरीने आचार्यभगवान उपदेश आपे छे के हे जीव! तुं
जिनभावना भाव! स्वसन्मुख थईने शुद्धात्मानी भावना भाव.
अरे जीव! संसारमां नवा नवा जन्म धारण करी करीने, नवी नवी माताना दूध तें एटला पीधा के
समुद्रना पाणीथी पण ते अधिक थाय. भूंडना अवतारमां भूंडणीना दूध पीधां, सिंहना अवतारमां सिंहणना
दूध पीधां, हाथीना अवतारमां हाथणीनां दूध पीधां, गधेडाना अवतारमां गधेडीना दूध पीधां–अने मनुष्यना
अवतारमां मनुष्यनी माताना दूध पीधां–एम अनंत अवतारमां अनंत दरिया भराय एटला दूध पीधां.
एक मात्र जिनभावना विना जीवे आवा अवतार कर्या.
जन्मीने जनेताना दूध पीधां ने मरीने माताने रोवडावी; मरीमरीने एटली माताने रोवडावी के जेना