तीव्र कषायने आधीन थईने व्रतादिथी भ्रष्ट थाय, संघमां बीजा मुनिओनो तथा धर्मात्मानो अनादर करे ते
कुशील छे. साधु नाम धरावीने जे ज्योतिष–वैदिक मंत्रविद्या वगेरे साधनथी आजीविका करे, राजानो सेवक
थईने राजखटपटमां उतरे–एने संसक्त कहे छे. जिनसूत्रथी विरुद्ध वर्तन करे, चारित्रथी भ्रष्ट वर्ते एवा
आळसु भ्रष्ट साधुने अवसन्न कहे छे; अने गुरुनी आज्ञा बहार, मिथ्या स्वच्छंदपूर्वक एकलो वर्ते, जिनआज्ञा
लोपे–एवा भेषधारी साधु ते मृगाचारी छे–आवा पंचविध कुसाधुओ सम्यग्दर्शनादिरूप जिनभावनाथी भ्रष्ट
थईने अशुभभावनाओ भावे छे, तेओ दुःखने ज पामे छे. साधु वेष धार्यो तेथी कांई जिनभावना वगर
सुखी थई जाय–एम बनतुं नथी. सम्यग्दर्शन वगर अनंतवार एवा भेष धार्या, पण भवनो अंत न आव्यो.
पाम्यो. आ तो बहारना व्यक्त दुःखोनुं वर्णन छे, आकुळता होय त्यारे पण अंतरमां आकुळताथी एकला
विकारने ज वेदतो थको अज्ञानी जीव पण दुःखी ज छे. सुखसागर आत्मा तरफ ज्यां वलण नथी त्यां दुःख
ज छे,–भले अनुकूळ संयोग हो के प्रतिकूळ हो.
कुदेव थयो. चैतन्यनी वीतरागी कथानो तो रस नथी ने स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा के भोजनकथा तेमां
रसथी वर्ते छे,–ते भले मुनि थईने व्रतादि पाळे–तोपण हलको देव थईने दुःखने ज पामे छे. अरे जीव!
चैतन्यनी महत्ताने भूलीने तुं आहारादिनी तूच्छ कथामां क््यां पड्यो?
ईर्षाथी हालकडोलक थईने आकुळव्याकुळपणे दुःखी ज थाय.
दुःखो अज्ञानथी पाम्यो. ते दुःखोथी छूटवा माटे हे जीव! तुं सम्यग्दर्शनादि भावोने ओळखीने तेनी भावना
कर...
शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप एवो जे तारो आत्मा तेनी सन्मुख थईने जिनभावना भाव. निजभावना ते ज
जिनभावना छे, केमके “जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहीं कांई” जेवुं शुद्धजिनपद छे तेवुं ज शुद्ध
निजपद छे, तेनी भावनाथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप भाव प्रगटे छे, ने तेनाथी ज भवभवनां दुःखोनो
अंत आवीने परमसुखनी प्राप्ति थाय छे. माटे फरीफरीने आचार्यभगवान उपदेश आपे छे के हे जीव! तुं
जिनभावना भाव! स्वसन्मुख थईने शुद्धात्मानी भावना भाव.
दूध पीधां, हाथीना अवतारमां हाथणीनां दूध पीधां, गधेडाना अवतारमां गधेडीना दूध पीधां–अने मनुष्यना
अवतारमां मनुष्यनी माताना दूध पीधां–एम अनंत अवतारमां अनंत दरिया भराय एटला दूध पीधां.
एक मात्र जिनभावना विना जीवे आवा अवतार कर्या.