अर्हंतदेवना शासननो सार छे.
स्वयं शुद्धोपयोगरूपे परिणम्यो त्यां पोते नमस्कार करनार ने बीजो नमस्कार करवा योग्य–एवो स्व–परनो
विभाव न रह्यो, शुद्धोपयोगरूपे परिणमीने पोते ज पोतामां अभेदपणे नम्यो,–ते नमस्कारमां स्व–परनो
विभाव अस्त थई गयो छे, भाव्य–भावक बंने अभेद थया छे,–आ रीते नमस्कार हो! एटले के साक्षात्
शुद्धोपयोगरूप परिणमन हो.
शुभोपयोगी मुनिओने तो तेमनी पाछळ–पाछळ (गौणपणे) लेवामां आव्या छे. शुभोपयोगी मुनि कह्या ते
पण छठ्ठा गुणस्थानवर्ती भावलिंगी संत शुद्धपरिणतिवाळा छे, अज्ञानीने शुभोपयोग होय तेनी वात नथी.
छठ्ठा गुणस्थाने शुभोपयोगी मुनिने जेटली सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी शुद्ध परिणति वर्ते छे तेटलो ज
मोक्षमार्ग छे, जे शुभराग छे ते कांई मोक्षमार्ग नथी. जे जीव आवी श्रद्धा न करे ने रागने मोक्षमार्ग माने
तेने तो हजी सम्यग्दर्शननी पण शुद्धि नथी, मार्गनी तेने खबर ज नथी, तो मार्गमां आवे क््यांथी?
मार्गनी रचना करी. अहा, केवो सत्य मार्ग! केवो चोकखो मार्ग! केवो प्रसिद्ध मार्ग!! लोकोमां अत्यारे मार्गनी
घणी गरबड चाली रही छे.–शुं थाय?–एवो ज काळ!–पण सत्यमार्ग तो जे छे ते ज रहेवानो छे.
सर्व मनोरथना स्थान तरीके तेओ अभिनंदनीय छे. मुमुक्षुना सर्व मनोरथनी सिद्धि शुद्धोपयोग वडे थाय छे.
तेथी तेने अभिनंदता थका अति आसन्नभव्य महामुमुक्षु आचार्यदेव कहे छे के हुं आवा शुद्धोपयोगने
अभेदपणे भावीने नमस्कार करुं छुं, एटले के हुं ते–रूपे परिणमुं छुं. जेवुं ‘वाचक’ परिणमे छे तेवुं ज अंदर
‘वाच्य’ पण परिणमी ज रह्युं छे; आ रीते संधिबद्ध अलौकिक रचना छे, वाचक–वाच्यनी संधि तूटती नथी.
वधारे शुं कहीए! आटलाथी बस थाओ. सर्व मनोरथना स्थानरूप एवा आ शुद्धोपयोगने तद्रूपे