जे जाणतो, ते अल्पकाळे सार प्रवचननो लहे.
शास्त्र समाप्त करतां आचार्यदेव तेनुं फळ बतावे छे. शास्त्रनुं फळ शुं? के ज्ञानानंदनी भरेला
कहेला आ उपदेशने जे जीव जाणे छे ते जीव आवा फळने पामे छे.
आ उपदेश जाण्यो छे. जो श्रुतज्ञानने अंतर्मुख न वाळ्युं तो तेणे आ शास्त्रनो उपदेश जाण्यो ज नथी. अहा,
संतोनो वीतरागी उपदेश ते भावश्रुत वगर जाणी शकाय तेम नथी. आ उपदेश अनुसार भावश्रुत प्रगट
करीने जे शुद्धात्माने अनुभवे छे ते जीव ज्ञान ने आनंदथी भरपूर एवा अभूतपूर्व सिद्धपदने पामे छे.–ते
आ शास्त्रने जाणवानुं फळ छे.
प्राप्ति छे; पण शास्त्रने कई रीते जाणवुं? श्रुतज्ञानउपयोगना प्रभावथी शुद्धआत्माना अनुभव सहित जे
शिष्यो आ उपदेशने जाणे छे तेओ अपूर्व आत्माने पामे छे. जुओ, कोई निमित्तनो के शुभरागनो प्रभाव न
कह्यो, पण पोताना श्रुतज्ञानउपयोगनो ज प्रभाव कह्यो. श्रुतज्ञानउपयोगने ज्यां अंतरमां वाळ्यो त्यां
समस्त शास्त्रोना अर्थ तेमां समाई गया. आ रीते जेओ श्रुतज्ञानवडे केवळ निजात्माने अनुभवे छे तेओए
ज खरेखर शास्त्रोना उपदेशने जाण्यो छे ने तेओ ज शास्त्रना फळरूप परमानंदने पामे छे.
ज्ञाननो उपयोग जो न वाळे तो शास्त्रनुं भणतर निःसार छे, शास्त्रनो सार के शास्त्रनुं फळ तेने प्राप्त थतुं
नथी. उपयोगने रागादिथी भिन्न करीने, अंतर्मुख थईने, जे शिष्य स्वानुभव करे छे तेणे ज संतोना उपदेशने
झील्यो छे, गुरुए उपदेशमां जेम कह्युं तेम ते शिष्ये कर्युं; ए रीते सम्यक्प्रकारे शास्त्रना उपदेशने जाणनार
शिष्यवर्ग अपूर्व–आनंदथी भरपूर आत्मिकसिद्धिने पामे छे. आ रीते आ पांचमुं रत्न शिष्यजनने शास्त्रना
फळभूत परमआनंद साथे जोडे छे.