अनंतवार कर्यां छे. रागनी वातमां (व्यवहारनी वातमां) होंस आवे ने चैतन्यना वीतरागीस्वभावनी
वातमां होंस न आवे तो ते जीवनो भाव नरक अने निगोदनी जातनो ज छे, एटले के ते संसारचक्रनी
मध्यमां ज रहेलो छे.
एकत्वस्वभावनी वात सांभळी ज नथी एम कह्युं. अने निगोदना अनंता जीवोए शब्दो सांभळ्या न होवा
छतां, वेदनमां काम–भोग–बंधननो भाव सेवी रह्या छे तेथी तेणे बंधकथा अनंतवार सांभळी छे एम कही
दीधुं. आ रीते उपादानमां जेनो भाव छे तेवुं ज श्रवण कह्युं.
आकळो बनीबनीने मृगजळ जेवा विषयोमां झंपलावे छे...अने ऊंधी रुचिने पोषनारा जीवो साथे परस्पर
आचार्यपणुं करीने आत्मानुं अहित करनारा एवा काम–भोग–बंधनना भावनुं ज तुं सेवन करी रह्यो छे
तेथी ते सुलभ छे...छे तो दुःखदायी पण अनंतकाळथी सेवी रह्यो छे तेथी सुलभ छे; ने चैतन्यना स्वभावने
कदी सेव्यो नथी तेथी ते दुर्लभ छे. चैतन्यने भूलीने मिथ्यात्वरूपी भूतने ताबे थईने आकुळव्याकुळपणे
विषयोमां ज दोडे छे. तृष्णारूपी मोटा रोगथी अंतरमां महापीडा थई छे, चैतन्यनी बहार शुभ–अशुभ
विषयोमां ज उपयोगने भमावे छे, चैतन्यध्येयने भूल्यो छे, ने बाह्यविषयो तो मृगजळ जेवा छे. जेम
मृगलो मृगजळ पाछळ घणो दोडे तोपण पाणी मळे नहीं ने तरस छीपे नहि...तेम चैतन्यथी बाह्य कोई पण
विषयोमां उपयोगने गमे तेटलो भमावे पण ते बाह्यविषयो मृगजळ जेवा छे तेमांथी सुख मळे नहि ने
जीवनी तृष्णा मटे नहीं. अरे! मुनि के आचार्य नाम धरावीने पण अनंतवार विषयोमां ज मूर्छाईने पड्यो
छे, शुभरागमां धर्म मानीने जे अटक्यो ते पण विषयोमां ज मूर्छाणो छे. परमां कर्तांपणानी ने विकारना
भोक्तापणानी वात पोताने तो रुचि छे एटले पोते होंसथी बीजाने संभळावे छे अने बीजा पासेथी तेवी
वात होंसथी सांभळे छे,–ए रीते परस्पर आचार्यपणुं करे छे.–अंतरमां शुद्ध आत्माने स्वविषय करवानी
वात पोताने रुचि नथी, तेवुं कहेनारानो संग पण रुच्यो नथी; आवी ऊंधी रुचिने कारणे जीवने
एकत्वस्वभावनी वात दुर्लभ थई गई छे, ने कामभोगबंधननी वात सुलभ थई गई छे. पण एनुं फळ तो
संसार छे, एमां आत्मानुं अहित छे.
प्रकाशमान छे पण मिथ्याद्रष्टि तेने कषायो साथे एकमेक मानीने ढांकी रह्यो छे,–जेवो द्रव्यस्वभाव छे तेवो
पर्यायमां व्यक्त नथी करतो एटले ते तिरोभावरूप छे; पोते अज्ञानी–अनात्मज्ञ होवाथी शुद्ध एकत्व
आत्माने जाणतो नथी, अने बीजा आत्मज्ञ ज्ञानी धर्मात्मानी सेवा–संगति करी नथी, तेथी जीवने ते
एकत्वस्वभाव कदी श्रवणमां–परिचयमां के अनुभवमां आव्यो नथी. धर्मात्मानी सेवा एटले शुं? के धर्मात्मा
ज्ञानीए कहेलो भाव समजीने पोतामां प्रगट करे तो ज्ञानीनी सेवा करी कहेवाय.
थाय छे. ज्ञानीना आशयथी विपरीत माने तो तेणे खरेखर ज्ञानीनी सेवा करी नथी.