Atmadharma magazine - Ank 215
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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भादरवो : २४८७ : १प :
वेद्या, पण आ चैतन्यना आनंदनुं वेदन तें कदी न कर्युं. आवा ऊंधा भावे तें निगोदना ने नरकना अवतार
अनंतवार कर्यां छे. रागनी वातमां (व्यवहारनी वातमां) होंस आवे ने चैतन्यना वीतरागीस्वभावनी
वातमां होंस न आवे तो ते जीवनो भाव नरक अने निगोदनी जातनो ज छे, एटले के ते संसारचक्रनी
मध्यमां ज रहेलो छे.
जुओ, आमां उपादान–निमित्तनी वात पण आवी गई. निमित्तरूपे एकत्वभावना शब्दो तो काने
पड्या, पण उपादानमां तेवो भाव प्रगट न कर्यो तो ते श्रवणने शुद्धतानुं निमित्त पण न कहेवायुं, ने तेणे
एकत्वस्वभावनी वात सांभळी ज नथी एम कह्युं. अने निगोदना अनंता जीवोए शब्दो सांभळ्‌या न होवा
छतां, वेदनमां काम–भोग–बंधननो भाव सेवी रह्या छे तेथी तेणे बंधकथा अनंतवार सांभळी छे एम कही
दीधुं. आ रीते उपादानमां जेनो भाव छे तेवुं ज श्रवण कह्युं.
अरे जीव! राग अने आत्मानी एकताने तोडीने तें कदी आत्मानुं श्रवण–लक्ष के वेदन कर्युं नथी,
रागमां एकता करी करी ने मोहरूपी भूतने आधीन थईने तुं संसारमां बळदनी जेम भार वही रह्यो छे,
आकळो बनीबनीने मृगजळ जेवा विषयोमां झंपलावे छे...अने ऊंधी रुचिने पोषनारा जीवो साथे परस्पर
आचार्यपणुं करीने आत्मानुं अहित करनारा एवा काम–भोग–बंधनना भावनुं ज तुं सेवन करी रह्यो छे
तेथी ते सुलभ छे...छे तो दुःखदायी पण अनंतकाळथी सेवी रह्यो छे तेथी सुलभ छे; ने चैतन्यना स्वभावने
कदी सेव्यो नथी तेथी ते दुर्लभ छे. चैतन्यने भूलीने मिथ्यात्वरूपी भूतने ताबे थईने आकुळव्याकुळपणे
विषयोमां ज दोडे छे. तृष्णारूपी मोटा रोगथी अंतरमां महापीडा थई छे, चैतन्यनी बहार शुभ–अशुभ
विषयोमां ज उपयोगने भमावे छे, चैतन्यध्येयने भूल्यो छे, ने बाह्यविषयो तो मृगजळ जेवा छे. जेम
मृगलो मृगजळ पाछळ घणो दोडे तोपण पाणी मळे नहीं ने तरस छीपे नहि...तेम चैतन्यथी बाह्य कोई पण
विषयोमां उपयोगने गमे तेटलो भमावे पण ते बाह्यविषयो मृगजळ जेवा छे तेमांथी सुख मळे नहि ने
जीवनी तृष्णा मटे नहीं. अरे! मुनि के आचार्य नाम धरावीने पण अनंतवार विषयोमां ज मूर्छाईने पड्यो
छे, शुभरागमां धर्म मानीने जे अटक्यो ते पण विषयोमां ज मूर्छाणो छे. परमां कर्तांपणानी ने विकारना
भोक्तापणानी वात पोताने तो रुचि छे एटले पोते होंसथी बीजाने संभळावे छे अने बीजा पासेथी तेवी
वात होंसथी सांभळे छे,–ए रीते परस्पर आचार्यपणुं करे छे.–अंतरमां शुद्ध आत्माने स्वविषय करवानी
वात पोताने रुचि नथी, तेवुं कहेनारानो संग पण रुच्यो नथी; आवी ऊंधी रुचिने कारणे जीवने
एकत्वस्वभावनी वात दुर्लभ थई गई छे, ने कामभोगबंधननी वात सुलभ थई गई छे. पण एनुं फळ तो
संसार छे, एमां आत्मानुं अहित छे.
आत्मानो जे एकत्वस्वभाव ते निर्मळ भेदज्ञानना प्रकाश वडे स्पष्ट जणाय छे, ज्ञानने अंतर्मुख
वाळतां तेना प्रकाशथी–स्वसंवेदनथी–आत्मा स्पष्ट जणाय छे; आत्मानुं एकपणुं अंतरंगमां सदाय
प्रकाशमान छे पण मिथ्याद्रष्टि तेने कषायो साथे एकमेक मानीने ढांकी रह्यो छे,–जेवो द्रव्यस्वभाव छे तेवो
पर्यायमां व्यक्त नथी करतो एटले ते तिरोभावरूप छे; पोते अज्ञानी–अनात्मज्ञ होवाथी शुद्ध एकत्व
आत्माने जाणतो नथी, अने बीजा आत्मज्ञ ज्ञानी धर्मात्मानी सेवा–संगति करी नथी, तेथी जीवने ते
एकत्वस्वभाव कदी श्रवणमां–परिचयमां के अनुभवमां आव्यो नथी. धर्मात्मानी सेवा एटले शुं? के धर्मात्मा
ज्ञानीए कहेलो भाव समजीने पोतामां प्रगट करे तो ज्ञानीनी सेवा करी कहेवाय.
धर्मात्मा जेवो रागथी पृथक् स्वभाव बतावे छे तेवो पोते जाणे तो धर्मात्मानी खरी सेवा अने परिचय
कर्यो कहेवाय. रागथी जुदो पडीने धर्मात्माना भाव साथे पोताना भावनुं एकत्व कदी प्रगट कर्युं नथी.
ज्ञानीने रागथी पृथक् अपूर्व चैतन्यभाव बताववो छे, एवो अपूर्व भाव ख्यालमां ल्ये–तो तेणे
ज्ञानीनो आशय पोतामां झील्यो ने ज्ञानीनी संगति–सेवा करी. आवी संगति–सेवाथी आत्मानो अनुभव
थाय छे. ज्ञानीना आशयथी विपरीत माने तो तेणे खरेखर ज्ञानीनी सेवा करी नथी.