: १६ : आत्मधर्म : २१प
वळी आत्मज्ञ ज्ञानीनी सेवानी वात करी, एटले सामे निमित्तपणे ज्ञानी ज होय, अने ज्ञानी केवा
होय–तेनी ओळखाण पोताने होवी जोईए. एकला शास्त्र भणेलानी अहीं वात नथी, शास्त्रभणतर
अनंतवार कर्युं छतां जो अनुभव न कर्यो तो तेणे आत्मानी वात सांभळी नथी.
पोते अज्ञानी छे ने ज्ञानीना हृदयने ओळखतो नथी एवा जीवने भिन्न आत्मानुं एकपणुं दुर्लभ छे.
जो ज्ञानीने ओळखे ने रागथी जुदो पडी स्वभाव तरफ वळे तो तो सुलभ छे, पण रागनी रुचिथी पोते
स्वयं अज्ञानी छे ने ज्ञानीनी ओळखाण–सेवा (तेमणे कह्युं तेवुं लक्ष) करतो नथी, तेथी तेने
एकत्वस्वभावनी प्राप्ति दुर्लभ छे.
अनादिथी बहिर्मुखवृत्तिमां ज जीव दोडे छे, पोताने तेवी रुचि छे तेथी शास्त्रमांथी पण तेवी ज वात
पोषे छे, बीजा अज्ञानीओना संगे तेवुं ज पोषण करे छे, पण चैतन्यस्वभावनी अंतर्मुखवृत्ति कदी करी नथी,
तेवी वात समजावनारा ज्ञानी पासेथी ते समज्यो नथी तेथी ते दुर्लभ छे. निश्चयथी तो स्वभाव सुलभ छे
केमके ते स्वाधीन छे अने संयोग तो स्वाधीन नथी माटे दुर्लभ छे. अनंतकाळथी स्वभाव नथी समज्यो माटे
दुर्लभ छे छतां ज्यारे करवा मांगे त्यारे स्वाधीनपणे थई शके छे माटे सुगम छे. एक ठेकाणे तो कहे छे के
जेओ चैतन्यना स्वानुभवनी वार्ता–चर्चा पण करे छे तेओ धन्य छे.
एकत्वस्वभावनी दुर्लभता बतावीने आचार्य भगवान करुणाथी कहे छे के अमे ते एकत्वस्वभाव
अमारा समस्त वैभवथी दर्शावीए छीए:–
दर्शावुं एक–विभक्त ए, आत्मा तणा निजविभवथी;
दर्शावुं तो करजो प्रमाण, न दोष ग्रह स्खलना यदि.
हे जीवो! शुद्धात्मस्वरूप तमे कदी जाण्युं नथी–अनुभव्युं नथी ते अमे स्वानुभवथी दर्शावीए छीए...हे
शिष्यो! तमे तमारा स्वानुभवथी ते जाणजो. जुओ, आचार्यदेवनी शैली!! आवी वात स्वानुभवथी
दर्शावनारा अमे मळ्या, अने ते झीलनारा शिष्यमां तेवी पात्रता न होय एम बने नहीं. “अहो, अपूर्व वात
छे...अमारे अमारा आत्मामां नवुं–अपूर्व कार्य करवुं छे ने अमारे माटे आ नवी अपूर्व वात छे”–एम
अंदरथी तैयार थईने शिष्य सांभळे छे. जे शिष्य आत्माने समजवानो पात्र थईने सांभळवा ऊभो छे एवा
शिष्यने आत्मानुं स्वरूप दर्शावीए छीए–एम वक्ता–श्रोतानी, अने उपादान–निमित्तनी अपूर्व संधी छे.
श्रोता अपूर्वभावे सांभळे छे. आचार्यदेवने निःशंकता छे के अमे शुद्धात्मा दर्शावीए छीए ने श्रोता शिष्य ते
समजी ज जशे.
अरे जीवो! अनंतकाळथी आत्माना चिदानंद स्वरूपनी वार्तानुं रुचिथी श्रवण पण नथी कर्युं, रागादिनी
ज रुचि–परिचय–श्रवण कर्युं छे. ज्यांथी धर्म थाय, जेमांथी सुख थाय–ते तत्त्व केवुं छे ते हुं देखाडुं छुं.
‘अत्यारसुधी घणा संतोए देखाडयुं हतुं ने?’ पण में देख्युं न हतुं तेथी मारे माटे तो आचार्यदेव
नवुं ज देखाडे छे. पूर्वे अनंता संतो चैतन्यने दर्शावनारा थई गया ने अनंता जीवो समजीने मुक्ति पाम्या,
पण ते वखते हुं अंदरथी न ऊछळ्यो, हुं मारुं स्वरूप न समज्यो–तेथी में तो आत्मस्वरूपनी वात खरेखर
कदी सांभळी ज नथी तेथी मारे माटे तो आ श्रवण ते अपूर्व छे. वर्तमान श्रोतानो भाव अपूर्व छे त्यां
आचार्यदेव कहे छे के–हुं वर्तमान मारा निजवैभवना आनंदना अनुभवमां ऊभेलो–तमने तेनो मार्ग
कहीश. मात्र कोईक पासेथी सांभळेलुं कहीश–एम नथी कहेता, पण पोते स्वानुभवनी निःशंकता सहित कहे
छे के मारो जे निजवैभव छे तेना वडे हुं शुद्धात्मा दर्शावीश, अने हे श्रोताजनो! तमे पण तमारा स्वानुभव
वडे ते प्रमाण करजो.–आम कहीने उपादान–निमित्तनी अपूर्व संधि करी छे.
वर्तमानमां आ पृथ्वी उपर विदेहक्षेत्रमां सीमंधरनाथ साक्षात् तीर्थंकर परमात्मा बिराजी रह्या छे,
ज्यां अनेक गणधरो–मुनिओ–श्रुतकेवळी भगवंतो बिराजे छे, दिव्यध्वनिमां चैतन्यना धोध ऊछळे छे, त्यां
कुंदकुंदाचार्य–