Atmadharma magazine - Ank 215
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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भादरवो : २४८७ : १७ :
देव पधार्या हता–आठ दिवस रह्या हता, ने ए दिव्यध्वनिना धोध सांभळ्‌या हता...ए रीते भरतक्षेत्रमां
जन्मीने विदेहक्षेत्रना तीर्थंकरने साक्षात् भेटनारा श्री कुंदकुंदाचार्यदेव पोताना आत्माना वैभवथी शुद्धात्मानुं
स्वरूप दर्शावे छे. अहा! एमनी शक्तिनी शी वात! एमना वैभवनी शी वात! अने शिष्यने पण साथे ज
राखीने कहे छे के हे शिष्य! हुं दर्शावुं छुं ने तुं जरूर प्रमाण करजे. जुओ तो खरा! एकत्वस्वभावनी केटली
होंस छे!! आहा, आवा दर्शावनारा मळ्‌या...तो शिष्य पण जरूर स्वानुभवथी एकत्वभावने जाणे छे.
आचार्यदेव कहे छे के मारी मीट शुद्धचैतन्य उपर छे, ने तुं पण ते शुद्धचैतन्यस्वभाव उपर ज मीट राखीने
सांभळजे. वच्चे व्याकरणना शब्द वगेरेमां कदाचित क्षयोपशमदोषथी फेरफार थई जाय ने तारा लक्षमां ते
आवी जाय तो तेमां तुं अटकीश नहि. जेवो अमारो भाव छे तेवो ज भाव तारामां प्रगट करीने सांभळजे.
आ रीते निमित्त–नैमित्तिक भावनी अपूर्व संधि सहितनी वात छे. धर्मी संतोनुं जेवुं हृदय छे तेवुं श्रद्धामां
लीधुं तेने धर्मी साथे निमित्त–नैमित्तिकनी संधि थई.
आहा, जुओ तो खरा आ वैभव! जगतना बधा वैभवने जाणनारो जे आ चैतन्यभाव, ते अचिंत्य
चैतन्यवैभवनी पासे जगतनो बधो वैभवतूच्छ छे. पंचमकाळना आचार्य पंचमकाळना जीवोने निजवैभवथी
शुद्धआत्मा देखाडे छे. आचार्यदेव कहे छे के हुं समस्त वैभवथी बतावीश एटले कांई पण बाकी नहि राखुं, ने
तमे पण शुद्धआत्माने जोवा माटे सर्व पुरुषार्थ वडे प्रयत्न करजो.
हवे चैतन्यनो जे निजवैभव प्रगट्यो छे ते कया प्रकारे प्रगट्यो, तेमां निमित्त केवा हता ते ओळखावे छे.
भगवान सर्वज्ञदेवनी वाणीरूप जे शब्दब्रह्म–तेनी सेवाथी अमारा निजवैभवनो जन्म छे. भगवाननी
वाणीनी उपासना–एटले के ते वाणीना वाच्यभूत जे एकत्व विभक्त आत्मा–रागथी पार ने चैतन्यथी
परिपूर्ण–तेनी उपासना करी, भगवाननी वाणीमांथी अमे आवो सार काढयो, ते अमे अहीं दर्शावीए छीए.
जुओ, आ भगवाननी वाणीनी ओळखाण पण अपूर्व जातनी छे. रागथी धर्म मनावे ते
भगवाननी वाणी नहि, भगवाननी वाणी तो रागथी पृथक् एकत्व स्वभाव बतावे छे. अज्ञानीनी वाणीथी
चैतन्यस्वभाव पमाय नहि. एकली वाणीनी वात पण नथी, ते वाणी पण स्वानुभवी गुरु पासेथी सीधी
सांभळी छे, सर्वज्ञदेव–गणधरदेव तथा आचार्यपरंपराना गुरुओ तेमनी कृपा वडे प्रसादरूपे अमने जे
शुद्धात्मानो उपदेश मळ्‌यो तेनाथी अमने शुद्धात्मानो अनुभव प्रगट्यो छे.
आहा! समयसारनी वाणीनी ठेठ भगवान सर्वज्ञदेव साथे संधि करीने आचार्यदेव कहे छे के
चैतन्यरसथी नीतरती भगवाननी वाणीनी उपासना करीने तेमांथी अमे शुद्धात्मा तारव्यो. जुओ, आवो
आशय काढे तेणे जिनवाणीनी उपासना करी. पण जे विपरीत आशय काढे–रागथी धर्म माने तेणे
जिनवाणीनी उपासना नथी करी पण विराधना करी छे.
शास्त्रोनो आशय शुद्धात्मा दर्शाववानो छे–
जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहि कांई,
लक्ष थवानो तेहनो, कह्यां शास्त्र सुखदाई.
आ रीते कसोटी उपर कसीने अमे जिनवाणीने ओळखीने तेनी उपासना करी छे. जिनवाणीनुं दोहन
करीने शुद्धात्मारूपी माखण बहार काढयुं छे, ते आ समयसारमां दर्शावीए छीए.
जिनवाणीनी उपासना साथे अति निष्तुष–निर्बाधयुक्तिना बळे अमे एकत्व विभक्त स्वरूप नक्की
कर्युं छे. एमने एम एकली वाणीथी नथी मानी लीधुं पण अंदरमां निर्मळ ज्ञाननी निर्दोष युक्ति वडे नक्की
करीने निर्णय कर्यो छे. शुद्धात्मानुं जे यथार्थ स्वरूप छे तेनाथी विपरीत कहेनारा एकांतवादी जे विपक्षो तेनुं
सम्यक् युक्तिना बळवडे खंडन करीने, एकत्व विभक्त आत्मानुं स्वरूप बधा पडखेथी बराबर नक्की कर्युं छे;
ज्ञाननी निर्मळता वधतां अंदरथी नवीनवी निर्दोष युक्ति स्फूरती जाय छे.
आगम, युक्ति, गुरुपरंपरा अने स्वानुभव–एम चार प्रकारथी आचार्यदेवना निजवैभवनो जन्म छे,