Atmadharma magazine - Ank 215
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : २१प
२. अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यने परिणमावे छे अथवा तेमां अतिशय उत्पन्न करे छे.
३. अन्य द्रव्यनी विवक्षित पर्याय अन्य द्रव्यनी विवक्षित पर्याय थवामां हेतु छे. तेना विना ते कार्य थतुं नथी.
४. शरीर मारुं छे तथा देश, धन अने स्त्रीपुत्रादि मारां छे वगेरे.
आ उपचरित कथननां केटलांक उदाहरणो छे. एना आश्रये फक्त दर्शन अने न्यायना ग्रन्थोमां ज
नहि पण अन्य अनुयोगना ग्रन्थोमां पण खूब विस्तारथी कथन करवामां आव्युं छे. तथा जे मुख्यपणे
अध्यात्मनुं प्रतिपादन करनारा ग्रन्थो छे तेमां पण ज्यां खास प्रयोजनवश उपचारकथननी मुख्यताथी
प्रतिपादन करवानुं ईष्ट जणायुं छे त्यां पण आ पद्धति स्वीकारी छे. तेथी आ जातना कथनने चारे
अनुयोगोना शास्त्रोमां स्थान मळ्‌युं नथी एम तो कही शकातुं नथी. छतां पण आ कथन केम असत्यार्थ छे
एनी अहीं मीमांसा करवानी छे.
३. ए द्रव्यनो स्वभाव छे के कोई कार्यनी उत्पत्तिमां उपादान मुख्य (अनुपचरित) निश्चय हेतु
थाय छे. अने अन्य द्रव्य व्यवहार (उपचरित) हेतु थाय छे. ते प्रमाणे जेणे पोतानी बुद्धिमां ए निर्णय कर्यो
छे के जे उपादान छे ते कर्ता छे अने जे कार्य छे ते तेनुं कर्म छे. तेनो तेवो निर्णय करवो परमार्थरूप छे. केम के
जीवादि प्रत्येक द्रव्यमां हमेशां छ कारकरूप शक्तिओ तादात्म्यभावे विद्यमान रहे छे. जेना आधारे ते ते
द्रव्यमां कर्तृत्व आदि धर्मोनी पोताना ज आश्रये सिद्धि थाय छे. छतां पण अन्य द्रव्यनी विवक्षित पर्याय
अन्य द्रव्यनी विवक्षित पर्याय थवामां व्यवहार हेतु छे ए जोईने अनादिरूढ लोकव्यवहारवश पृथक्
सत्तावाळा द्रव्योमां कर्ता कर्म आदिरूप व्यवहार करवामां आवे छे आज तथ्यने (सत्यने) स्पष्ट करता
४. कुन्दकुन्दाचार्य समयप्राभृतमां कहे छे :–
जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणाम
जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवचारमतेण ।। १०५।।
अर्थ:– जीव निमित्त थतां बन्धना परिणामने जोईने जीवे कर्म कर्युं ए उपचार मात्रथी कहेवामां आवे
छे. आज अर्थने स्पष्ट करतां उक्त गाथानी टीकामां अमृतचन्द्राचार्य कहे छे:–
इह खलु पौद्गलिककर्मंणः स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यात्मन्यनादेरज्ञानानात्तन्निमित्तभूतेनाज्ञानभावेन
परणमनान्निमित्तीभूते सति सम्पद्यमानत्वात्पौद्गलिकं कर्मात्मना कृतमिति निर्विकल्पविज्ञानघन भ्रष्टानांं
विकल्पपराणां परेषामस्ति विकल्पः। स तूपचार एव न तु परमार्थः।।
।। १०५।।
आ लोकमां आत्मा निश्चयथी स्वभावे पुद्गल कर्मनो निमित्तभूत नथी तो पण अनादिकाळना
अज्ञानवश तेना निमित्तभूत अज्ञानभावरूप परिणमन करवाथी पुद्गल कर्मना निमित्तरूप थतां पुद्गल
कर्मनी उत्पत्ति थाय छे. तेथी आत्माए कर्म कर्युं एवो विकल्प ते जीवोने थाय छे जे निर्विकल्प विज्ञानघनथी
भ्रष्ट थईने विकल्पपरायण थई रह्या छे. परंतु आत्माए कर्म कर्युं ए उपचार ज छे परमार्थ नथी. १०प.
प. आ कुन्दकुन्दाचार्य अने अमृतचन्द्राचार्यनुं कथन छे. पण तेमणे एने उपचरित केम कह्युं एनो
कोई हेतु तो होवो ज जोईए. माटे एनो ज अहीं सांगोपांग नयद्रष्टिथी विचार करीए छीए. शास्त्रोमां
लौकिक व्यवहारने स्वीकारनार ज्ञाननयनी अपेक्षाए (श्रद्धामूलक ज्ञाननयनी अपेक्षाए नहि)
असद्भूतव्यवहारनयनुं लक्षण आपतां लख्युं छे के जे अन्य द्रव्यना गुणोने अन्य द्रव्यना कहे छे ते
असद्भूतव्यवहारनय छे. नयचक्रमां कह्युं पण छे–
६. अण्णेसिं अण्णगुणो भणह असव्भूद.....।। २२३ ।। एनां मुख्य बे भेद छे–
उपचरितअसद्भूत– व्यवहारनय अने अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय. बृहत्द्रव्य संग्रह गा. ८मां
पुग्गलकम्मादीणं कत्ता आ गाथामां