Atmadharma magazine - Ank 215
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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भादरवो : २४८७ : २१ :
व्याख्यान प्रसंगे उदाहरणपूर्वक आ नयोनो खूलासे करता लख्युं छे :–
मनोवचनकायव्यापारक्रियारहित निज शुद्धात्मतत्त्वभावनाशून्यः सन्नुपचरितासद्भूतव्यवहारेण
ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मणां ‘आदि’ शब्देनौदारिक वैक्रियिकाहारक शरीरत्रयाहारादि षट् पर्याप्तियोग्य
पुद्गल पिण्डरूपनोकर्मणां तथैवोपचरिता सद्भूत व्यवहारेण बहिर्विषय घट–पटादीनां च कर्ता भवति।
मन, वचन अने कायाना व्यापारथी थवावाळी क्रियाथी रहित् एवुं जे निज शुद्धात्मतत्त्व तेनी भावनाथी
रहित थको आ जीव अनुपचरितअसद्भूत व्यवहारनी अपेक्षाए ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मोनो, आदि शब्दथी
औदारिक, वैक्रियिक अने आहारकरूप त्रण शरीर अने आहार आदि छ पर्याप्तिओने योग्य पुद्गल पिंडरूप
नोकर्मोनो तथा उपचरित असद्भूतव्यवहारनयनी अपेक्षाए बाह्य विषय घट–पट आदिनो कर्ता थाय छे.
७. उक्त कथननुं तात्पर्य छे के परमार्थथी कर्म, नोकर्म अने घट पट आदिनो जीव कर्ता होय अने
ते तेना कर्म होय एम नथी. परंतु जेम नयचक्रमां बताव्युं छे ते प्रमाणे एक द्रव्यना गुणोने बीजा द्रव्यना
कहेनार जे उपचरित के अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय छे ते अपेक्षाए अहीं जीवने पुद्गल कर्मो नोकर्मो
अने घट पटादिनो कर्ता कहेवामां आव्यो छे. तथा पुद्गलकर्म, नोकर्म अने घट–पट आदि तेना कर्मो कहेवामां
आव्या छे.
८. आथी स्पष्ट छे के ज्यां शास्त्रोमां भिन्न कर्ता–कर्म आदिनो व्यवहार कर्यो छे त्यां तेने उपचरित
(अयथार्थ) ज जाणवुं जोईए. केम के कोई एक द्रव्यना कर्तृत्व अने कर्मत्व आदि छ कारकरूप धर्मोनो बीजा
द्रव्यमां अत्यन्त अभाव छे. अने ए योग्य पण छे केम के ज्यां ‘एक द्रव्यनी विवक्षित पर्याय अन्य द्रव्यनी
विवक्षित पर्यायमां निमित्त छे’ ए कथन पण व्यवहारनयनो विषय छे त्यां भिन्न कर्तृ–कर्म आदि रूप
व्यवहारने वास्तविक केवी रीते मानी शकाय? तात्पर्य ए छे के ज्यां बे द्रव्योनी विवक्षित पर्यायोमां कर्ता–कर्म
आदि रूप व्यवहार करे छे त्यां जेमां कर्तृत्व आदि धर्मोनो उपचार करवामां आवे छे ते स्वतंत्र द्रव्य छे अने
जेमां कर्मत्व आदि धर्मोनो उपचार करवामां आवे छे ते स्वतंत्र द्रव्य छे. ते बन्ने द्रव्योनो परस्पर तादात्म्य
संबंध न होवाथी व्याप्य–व्यापकभाव पण नथी तथा तेमां एकबीजाना कर्तृत्व अने कर्मत्व आदि रूप धर्म पण
उपलब्ध थता नथी. छतां पण लोकानुरोध वशे तेमां आ आनो कर्ता छे अने आ आनुं कर्म छे ईत्यादिरूप
व्यवहार थतो जोवामां आवे छे. एथी जणाय छे के शास्त्रोमां आवा व्यवहारने जे असद्भूतव्यवहारनो
विषय कह्यो छे ते योग्य ज कहेल छे. स्पष्ट छे के आ व्यवहार उपचरित ज छे परमार्थभूत नथी. आ ज तथ्यने
बीजा शब्दोमां स्पष्ट करता श्री देवसेनाचार्य पण पोताना श्रुतभवनदीपक नयचक्रमां
व्यवहारोऽभूयत्थो
ईत्यादि गाथाओना व्याख्यानना प्रसंगे शुं कहे छे ए एमना ज शब्दोमां वांचीए–
९. उपनयोपजनितो व्यवहारः प्रमाण–नय–निक्षेपात्मा। भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति
व्यवहारः। कथमुपनयस्तस्य जनक इति चेत्? सद्भूतो भेदोत्पादकत्वात् असद्भूतस्तु
उपचारोत्पादकत्वात् उपचरितासदभूतस्तु उपचारादपि उपचारोत्पादकत्वात्। योऽसौ
भेदोपचारलक्षणोऽर्थः सोऽपरमार्थः।
.... अतएव व्यवहारोऽपरमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थः।
अर्थ :– प्रमाण, नय अने निक्षेपात्मक जेटलो कोई व्यवहार छे ते बधो उपनयथी उपजनित छे.
भेदद्वारा अने उपचार द्वारा वस्तु व्यवहार पदवीने प्राप्त थाय छे, तेथी तेनी व्यवहार संज्ञा छे.
(चालु)