पुद्गल पिण्डरूपनोकर्मणां तथैवोपचरिता सद्भूत व्यवहारेण बहिर्विषय घट–पटादीनां च कर्ता भवति।
औदारिक, वैक्रियिक अने आहारकरूप त्रण शरीर अने आहार आदि छ पर्याप्तिओने योग्य पुद्गल पिंडरूप
नोकर्मोनो तथा उपचरित असद्भूतव्यवहारनयनी अपेक्षाए बाह्य विषय घट–पट आदिनो कर्ता थाय छे.
कहेनार जे उपचरित के अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय छे ते अपेक्षाए अहीं जीवने पुद्गल कर्मो नोकर्मो
अने घट पटादिनो कर्ता कहेवामां आव्यो छे. तथा पुद्गलकर्म, नोकर्म अने घट–पट आदि तेना कर्मो कहेवामां
आव्या छे.
द्रव्यमां अत्यन्त अभाव छे. अने ए योग्य पण छे केम के ज्यां ‘एक द्रव्यनी विवक्षित पर्याय अन्य द्रव्यनी
विवक्षित पर्यायमां निमित्त छे’ ए कथन पण व्यवहारनयनो विषय छे त्यां भिन्न कर्तृ–कर्म आदि रूप
व्यवहारने वास्तविक केवी रीते मानी शकाय? तात्पर्य ए छे के ज्यां बे द्रव्योनी विवक्षित पर्यायोमां कर्ता–कर्म
आदि रूप व्यवहार करे छे त्यां जेमां कर्तृत्व आदि धर्मोनो उपचार करवामां आवे छे ते स्वतंत्र द्रव्य छे अने
जेमां कर्मत्व आदि धर्मोनो उपचार करवामां आवे छे ते स्वतंत्र द्रव्य छे. ते बन्ने द्रव्योनो परस्पर तादात्म्य
संबंध न होवाथी व्याप्य–व्यापकभाव पण नथी तथा तेमां एकबीजाना कर्तृत्व अने कर्मत्व आदि रूप धर्म पण
उपलब्ध थता नथी. छतां पण लोकानुरोध वशे तेमां आ आनो कर्ता छे अने आ आनुं कर्म छे ईत्यादिरूप
व्यवहार थतो जोवामां आवे छे. एथी जणाय छे के शास्त्रोमां आवा व्यवहारने जे असद्भूतव्यवहारनो
विषय कह्यो छे ते योग्य ज कहेल छे. स्पष्ट छे के आ व्यवहार उपचरित ज छे परमार्थभूत नथी. आ ज तथ्यने
बीजा शब्दोमां स्पष्ट करता श्री देवसेनाचार्य पण पोताना श्रुतभवनदीपक नयचक्रमां ‘
उपचारोत्पादकत्वात् उपचरितासदभूतस्तु उपचारादपि उपचारोत्पादकत्वात्। योऽसौ
भेदोपचारलक्षणोऽर्थः सोऽपरमार्थः।