संसारमां परिभ्रमण करशे.
द्रष्टिथी पदार्थोनुं स्वरूप विपरीतपणे ज समजे छे, पोतानो अभिप्राय ज विपरीत होवाथी ते शास्त्रोना
आशयने पण विपरीतपणे ज ग्रहण करे छे, भगवाननो अने श्रुतज्ञानी संतोनो अभिप्राय पण ते
अविवेकने लीधे ऊंधो ज ग्रहण करे छे, स्वयं अविवेकने लीधे तेने मिथ्यात्वनी महोर लागी छे; ऊंधी द्रष्टिथी
“आ तत्त्व आम ज छे” एम खोटा निश्चय वडे अतत्त्वश्रद्धा द्रढ करे छे. आ बधुं कोई परने लीधे नथी थतुं
पण ते जीव पोते स्वयं अविवेकी होवाथी, अने महा मोहमळथी मलिन छे तेथी ज ते विपरीतरूपे पदार्थनुं
स्वरूप मानीने, अतत्त्वश्रद्धान करे छे.–आवा जीवो भले द्रव्यलिंगी मुनि थईने जिनशासनमां रह्या होय तो
पण ते संसारतत्त्व ज छे, ते श्रमण नथी, पण श्रमणाभास छे. संसारतत्त्व एटले के बधाय मिथ्याद्रष्टि जीवो
केवा होय तेना उपर आ गाथा–रत्न प्रकाश पाडे छे. आ रीते विपरीतमान्यता जेनुं मूळ छे एवुं संसारतत्त्व,
तेनुं स्वरूप बतावीने तेनाथी छोडावे छे. स्वयं अविवेकथी ऊंधी श्रद्धा एवी द्रढ करी छे के तेमां संदेह करतो
नथी, ‘आ आम ज छे’ एम निश्चय कर्यो छे, तेणे महा मोह मळने एकठो कर्यो छे, शास्त्र वांचे तो तेमांथी
पण ऊंधी द्रष्टिने लीधे मोहमळने ज भेगो करे छे,–आवा जीवो व्रत–तप करता होय, संयम पाळता होय
तोपण मिथ्या अभिप्रायने लीधे अनंतकाळ सुधी अनंत भावांतर करीने भवभ्रमणमां रखडशे–तेथी तेने
संसारतत्त्व ज जाणवुं–ते द्रव्यलिंगी श्रमण थयो तेथी संसारतत्त्वमांथी जराय बहार नीकळ्यो हशे–एम संदेह
न करवो. स्पष्टपणे आ सूत्ररत्न तेना उपर प्रकाश नाखे छे के आ पण संसारतत्त्व ज छे, एनामां धर्म के
मोक्षमार्गनो अंश पण नथी. माटे जेने खरेखर संसारतत्त्वथी छूटवुं होय तेणे यथार्थतत्त्वनो निश्चय करीने
विपरीत अभिप्रायरूप मोहमळने नष्ट करवो. अहो, आ रत्नवडे अमृतचंद्राचार्ये मिथ्यात्वनां झेर उतारी
नाख्यां छे.
सिद्धपरमात्माने पण बाकी राखता नथी, ते सिद्धभगवंतोने पण निमित्तना