भादरवो : २४८७ : प :
अभावने लईने लोकाग्रे रहेवुं पड्युं छे–एम ते पराधीन माने छे. शुं थाय! पोतानी द्रष्टिमां ज ज्यां
पराधीनता छे त्यां आखुं जगत–सिद्धपरमात्मा के परमाणु ए बधाय–तेने पराधीन भासे छे. ऊंधी द्रष्टिरूप
कुहाडावडे पिता अने पितामह एवा संतो अने सर्वज्ञोना अभिप्रायनो ते घात करे छे. ते जीव ऊंधा
अभिप्रायने लीधे अनंत जन्ममरण करीने संसारमां रखडशे, तेथी तेने संसारतत्त्व जाणवुं. ज्यां ज्यां आवो
ऊंधो अभिप्राय होय त्यां त्यां संसारतत्त्व जाणवुं. जगतनो गमे ते जीव हो–पण जो आवा ऊंधा अभिप्राय
सहित होय तो ते संसारतत्त्व ज छे–एम समजवुं. ते श्रवण–वांचन–मनन के संयम गमे ते करे तेमां
विपरीत मान्यतारूपी झेर भेगुं भेळवीने ज करे छे; तेवा जीवोने स्वरूपमां रमणतारूप श्रमणपणुं होतुं नथी,
तेओ श्रमणाभास छे.–चिदानंदनो अनुभव तो तेने छे नहि, एटले कर्मफळना उपभोगने ज भोगवे छे;
कर्मफळना भोगवटाथी जे भयंकर छे एवा अनंतकाळ सुधी अनंत भावांतररूप परावर्तन करनारा ते जीवो
तद्न अस्थिर परिणतिवाळा होवाथी तेमने संसारतत्त्व ज जाणवुं.
जुओ, आ संसारतत्त्व! संसारतत्त्व बहारमां नथी पण मिथ्यात्वने लीधे जीव पोताना स्वरूपथी
अमृतचंद्राचार्यदेव कहे छे के–
मिथ्याद्रष्टि ते असिद्ध छे एटले के संसार छे,
सम्यग्द्रष्टि ते ईषत्सिद्ध छे एटले किंचित् सिद्ध छे,
अर्थात् सिद्धपदना ते साधक छे.
रत्नत्रयनी आराधनाथी पूर्ण एवा मुनिराज ते सिद्ध छे. अहीं प्रवचनसारमां पण तेओ कहे छे के
मिथ्याद्रष्टि ते संसारतत्त्व छे; अने रत्नत्रयना आराधक संपूर्ण श्रामण्यवाळा श्रमण ते मोक्षतत्त्व छे. अहा,
अप्रतिहतपणे जे मोक्षने साधी रह्या छे तेने ज मोक्षतत्त्व कही दीधुं.
मोक्ष क््यां रहे छे? के संतोनी शुद्धपरिणतिमां मोक्षतत्त्व रहे छे. ते वात आचार्यदेव बीजा रत्नमां
(एटले के २७२ मी गाथामां) कहेशे.
अहीं संसारतत्त्वनो सौथी मोटो नमूनो बताव्यो छे, ते उपरथी समग्र संसारतत्त्वने ओळखी लेवुं.
संसारतत्त्व छोडवा माटे तेनी ओळखाण करावी छे ने मोक्षतत्त्व प्रगट करवा माटे तेनी ओळखाण करावी छे.
मारा आत्मानो स्वभाव तो चैतन्यसामर्थ्यमय छे.
रागादि विभावो मारा स्वभावथी विपरीत छे;
देहादि संयोग तो माराथी अत्यंत भिन्न छे.
–आम यथार्थपणे जे जाणतो नथी, देहादिनी क्रिया हुं करुं एम माने छे, शुभरागथी मोक्षमार्ग सधाशे–एम
माने छे, ते जीव तत्त्वोनी विपरीत मान्यता वडे सतत महा मोहरूप मेलने एकठो करे छे; तेनुं मन मिथ्यात्वरूप
महामेलथी मलिन छे, तेथी ते ‘नित्यअज्ञानी’ छे. “नित्य अज्ञानी” कह्यो एटले के आवी विपरीत श्रद्धावाळा
जीवने व्यवहारनो शुभराग करतां करतां क््यारेक–घणा काळे पण सम्यग्ज्ञान प्रगटी जशे एम नथी; ज्यां सुधी
अविवेकथी विपरीत श्रद्धा करशे त्यां सुधी निरंतर ते अज्ञानी ज रहेशे, ने संसारमां ज रखडशे. ते जीव भले
कदाच द्रव्यलिंगी साधु–जेने वस्त्रनो ताणोय न होय एवो थईने जिनशासनमां रह्यो होय, व्यवहारथी सर्वज्ञदेवने
ज मानतो होय ने कुदेवने मानतो न होय, पंच महाव्रत बराबर पाळतो होय, तो पण शुद्धोपयोगना अभावथी
ते खरुं श्रामण्य पाम्यो न होवाथी ते श्रमणाभास ज छे, ने हजी पण ते संसारमार्गमां ज स्थित छे.
जुओ, आ श्रमणाभासने साचा देव–गुरु–शास्त्रनी श्रद्धानो तेमज व्यवहार चारित्रनो शुभराग छे,
ते शुभराग होवा छतां अर्हंतदेवना शासनमां तेने संसारमार्गमां ज स्थित कह्यो छे, एटले के अर्हंतदेवना
शासनमां शुभराग ते मोक्षमार्ग नथी–एम आ सूत्र प्रसिद्ध करे छे. आ सूत्र उपरथी समजी लेवुं के ज्यां
सुधी जीव सम्यक् तत्त्वश्रद्धान करीने सम्यग्दर्शन प्रगट न करे त्यां सुधी बीजुं गमे तेटलुं करवा छतां पण, ते
संसारमार्गमां ज छे. मिथ्याद्रष्टिए मुनिनुं द्रव्यलिंग धारण कर्युं होय तेथी छेतराई न जवुं के आ जीव
मोक्षमार्गमां स्थित हशे!