Atmadharma magazine - Ank 215
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : २१प
अथवा आटलुं करवाथी तेने कांईक तो धर्म थतो हशे! –ना ना; ए तो संसारमार्गमां ज छे.
संसारतत्त्व ते पांच भावमांथी कया भावमां आवे?–संसारतत्त्व ते औदयिकभावमां आवे छे; अने
नवतत्त्वमांथी पुण्य–पाप–आस्रव ने बंध ए चारे तत्त्वो ते संसारतत्त्व छे. अहीं तो कहे छे के मिथ्याद्रष्टि
श्रमणाभासने संसारतत्त्व ज जाणवुं; मिथ्यात्व ते ज मूळ संसार छे. पं. बनारसीदासजी नाटक–समयसारमां
स्पष्ट कहे छे के “प्रगट हो कि मिथ्यात्व ही आस्रव–बंध है और मिथ्यात्वका अभाव अर्थात् सम्यक्त्व
संवर–निर्जरा–मोक्ष है.” मिथ्यात्वमांथी जे बहार नीकळ्‌यो ते संसारतत्त्वमांथी बहार नीकळ्‌यो. अने
सम्यक्त्व वगर भले घरबार छोडीने जंगलमां रहे तो पण ते संसारतत्त्वथी बहार नीकळ्‌यो नथी...अंदरमां
संसार मांडीने ज बेठो छे, ज्यां जाय त्यां मिथ्याभावरूप संसारने भेगोने भेगो ज फेरवे छे. जेम कडवुं
करियातुं साकरनी कोथळीमां भरे तेथी कांई ते कडवुं मटीने मीठुं न थई जाय; तेम मिथ्याद्रष्टि जीव द्रव्यलिंग
धारण करे तेथी कांई ते संसारतत्त्व मटीने मोक्षमार्गी न थई जाय. ज्यां मिथ्यात्व छे त्यां संसारतत्त्व ज छे–
एम समजवुं.
हवे संसारतत्त्वनी सामे मोक्षतत्त्व शुं छे? ते वात आचार्यदेव २७२ मी गाथामां कहे छे.
[२]
हव बजा रत्न : : गथ २७२ :
क्षत्त् स्रू प्र
अयथाचरणहीन सूत्र–अर्थसुनिश्चयी उपशांत जे,
ते पूर्ण साधु अफळ आ संसारमां चिर नहि रहे. २७२

संपूर्ण श्रामण्यवाळा साक्षात् श्रमणने मोक्षतत्त्व जाणवुं.–ते श्रमण आ संसारमां लांबोकाळ नहि रहे,
अल्पकाळमां ज मोक्षरूपे परिणमशे, तेथी ते श्रमणने मोक्षतत्त्व जाणवुं. केवा छे ते श्रमण? त्रणलोकनी
कलगी समान निर्मळ विवेकरूपी दीवी एटले के भेदज्ञाननी निर्मळज्योतिनो प्रकाश तेमने प्रगट्यो छे, ते
ज्ञानप्रकाशवडे पदार्थोना स्वरूपनो यथार्थ निश्चय कर्यो छे, तेथी उत्सुक्ता दूर करीने स्वरूपमां तेओ स्थिर
थया छे. अंतर्मुख थई सच्चिदानंदना महेलमां पेसीने तेना अनुभवमां एवा तृप्त–तृप्त थया छे के तेमांथी
बहार नीकळता नथी, स्वरूपमंथर थया छे, स्वरूपमां जामी गया छे, स्वरूपनी प्रशांतिमां मग्न थया होवाथी
हवे विभावमां जवा माटे आळसु छे, सुस्त छे, चैतन्यमां वळ्‌या ते वळ्‌या, हवे कदी तेमांथी बहार नीकळवानुं
ज नथी एम अंदरमां जामी गया छे, सतत् उपशांत वर्ते छे, अकषायस्वरूपमां लीनता छे त्यां कषायनो
अभाव छे एटले उपशमभावनो ढगलो भेगो थतो जाय छे, अज्ञानीने तो मोहनो ढगलो भेगो थाय छे ने
आ मोक्षमार्गी मुनिराजने स्वरूपना उपशमभावनो गंज–ढगलो भेगो थाय छे. वळी अयथाचार तेमने दूर
थया छे, अशुभ तो छे ज नहि ने शुभवृत्तिना उत्थान जेटलो अयथाचार पण दूर थयो छे; वळी ते श्रमण
नित्य ज्ञानी छे, शुद्धोपयोगी थईने सतत् ज्ञानी वर्ते छे, स्वरूपमां ज्ञाननो उपयोग एवो जाम्यो छे के हवे
बहार नीकळवानो नथी. एवा ते शुद्धोपयोगी श्रमणो उत्कृष्ट साधकभावने पाम्या होवाथी श्रामण्यथी
परिपूर्ण छे, मोक्षनुं उत्कृष्ट साधन तेमने वर्ते छे, तेथी तेमने मोक्षतत्त्व ज कही दीधा छे. ते शुद्धोपयोगी श्रमणे
पहेलांनां समस्त कर्मोने लीलामात्रथी नष्ट कर्यां छे अने