स्पष्ट कहे छे के “प्रगट हो कि मिथ्यात्व ही आस्रव–बंध है और मिथ्यात्वका अभाव अर्थात् सम्यक्त्व
संपूर्ण श्रामण्यवाळा साक्षात् श्रमणने मोक्षतत्त्व जाणवुं.–ते श्रमण आ संसारमां लांबोकाळ नहि रहे,
कलगी समान निर्मळ विवेकरूपी दीवी एटले के भेदज्ञाननी निर्मळज्योतिनो प्रकाश तेमने प्रगट्यो छे, ते
ज्ञानप्रकाशवडे पदार्थोना स्वरूपनो यथार्थ निश्चय कर्यो छे, तेथी उत्सुक्ता दूर करीने स्वरूपमां तेओ स्थिर
थया छे. अंतर्मुख थई सच्चिदानंदना महेलमां पेसीने तेना अनुभवमां एवा तृप्त–तृप्त थया छे के तेमांथी
बहार नीकळता नथी, स्वरूपमंथर थया छे, स्वरूपमां जामी गया छे, स्वरूपनी प्रशांतिमां मग्न थया होवाथी
हवे विभावमां जवा माटे आळसु छे, सुस्त छे, चैतन्यमां वळ्या ते वळ्या, हवे कदी तेमांथी बहार नीकळवानुं
ज नथी एम अंदरमां जामी गया छे, सतत् उपशांत वर्ते छे, अकषायस्वरूपमां लीनता छे त्यां कषायनो
अभाव छे एटले उपशमभावनो ढगलो भेगो थतो जाय छे, अज्ञानीने तो मोहनो ढगलो भेगो थाय छे ने
आ मोक्षमार्गी मुनिराजने स्वरूपना उपशमभावनो गंज–ढगलो भेगो थाय छे. वळी अयथाचार तेमने दूर
थया छे, अशुभ तो छे ज नहि ने शुभवृत्तिना उत्थान जेटलो अयथाचार पण दूर थयो छे; वळी ते श्रमण
नित्य ज्ञानी छे, शुद्धोपयोगी थईने सतत् ज्ञानी वर्ते छे, स्वरूपमां ज्ञाननो उपयोग एवो जाम्यो छे के हवे
बहार नीकळवानो नथी. एवा ते शुद्धोपयोगी श्रमणो उत्कृष्ट साधकभावने पाम्या होवाथी श्रामण्यथी
परिपूर्ण छे, मोक्षनुं उत्कृष्ट साधन तेमने वर्ते छे, तेथी तेमने मोक्षतत्त्व ज कही दीधा छे. ते शुद्धोपयोगी श्रमणे
पहेलांनां समस्त कर्मोने लीलामात्रथी नष्ट कर्यां छे अने