Atmadharma magazine - Ank 215
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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भादरवो : २४८७ : :
नवां कर्मोने ते बांधतां नथी. तेथी फरीने आ संसारमां प्राणधारणरूप दीनताने ते पामता नथी. जे शुद्ध
निर्विकल्प आनंदरसनो अतीन्द्रियभाव प्रगट्यो ते सिवाय बीजा भावरूप (विकारी) परावर्तननो तेने
अभाव छे, अने शुद्धस्वभावमां ज स्थिर परिणतिवाळा सादि अनंत रहे छे. आवा उत्कृष्ट श्रमण पोते
मोक्षतत्त्व छे. मोक्ष जोवो होय तो आवा शुद्ध परिणतिरूपे परिणमेला शुद्धोपयोगी श्रमणने ओळख.
चैतन्यना आनंददरियामां डूबकी मारीने तेनो ताग लीधो छे–अंतरमां पूरेपूरा एकाग्र थईने ठेठ
तळियानो ताग लीधो छे, तेओ हवे फरीने ते आनंदमांथी बहार नीकळीने आकुळतामां कदी आवता
नथी; आकुळताना भाव अने तेना फळमां जन्म–मरण करवां ते कलंक छे, अतीन्द्रिय चैतन्यने जडप्राण
धारण करवा पडे ते कलंक छे, दीनता छे. स्वर्गनो भव करवो पडे ते पण दीनता छे–कलंक छे.
शुद्धोपयोगथी जेणे उत्कृष्ट श्रामण्य प्रगट कर्युं छे एवा रत्नत्रय–आराधक उत्तम मुनिवरो फरीने आ
संसारमां प्राण धारण करता नथी, आ संसारमां फरीने बीजी माता ते नहीं करे; शुद्धतामांथी
अशुद्धतामां फरीने कदी नहीं आवे. बस, हवे सादि–अनंतकाळ अनंत समाधिसुखमां ज अवस्थित
रहेशे. ते मुकाणो...रे..मुकाणो, हवे तेने बधन नथी,–नथी. वाह! अहीं ज पोतानी शुद्धपरिणतिमां
मोक्षतत्त्वने उतार्युं. मोक्ष लेवा माटे क््यांय बीजे जवुं पडे तेम नथी, अहीं अंतरमां ऊतरीने स्थिर थयो
त्यां तेणे पोतानी परिणतिमां ज मोक्षने उतार्यो; तेथी ते मोक्षतत्त्व छे.
अहा, स्वरूपमां ठरी गयेला मुनिने मोक्षतत्त्व ज कही दीधुं. मोक्षने पामवा माटे जे तद्न निकट
वर्ते छे एवा मुनिवरो धर्ममां प्रधान छे ने तेमने अहीं मोक्षतत्त्व कह्या छे, केमके अप्रतिहतपणे
स्वरूपमां एवा ठर्या छे के श्रेणी मांडीने केवळज्ञान लईने मोक्ष ज पामशे, ने फरीने संसारमां अवतरशे
नहीं.
मोक्षतत्त्व तरीके अहीं ‘सिद्ध’ ने न लेतां, जे अप्रतिहतपणे अंर्तस्वरूपमां लीन थया छे ने तेमांथी
हवे बहार नीकळवाना नथी एवा साधुने मोक्षतत्त्व तरीके लीधा छे. आम नजरोनजर पोतानी सामे जाणे
के मुक्त थवानी क्रियारूपे साधु परिणमी रह्या होय–ए रीते तेमने मोक्षतत्त्व तरीके आचार्यदेवे वर्णव्या
छे.
आवा साधुओ अतीन्द्रिय परमसुखने अनुभवता–अनुभवता सहज मात्रमां कर्मने नष्ट करीने मोक्षने
साधे छे.
अरे, मिथ्यात्वमां रहेलो द्रव्यलिंगी मुनि पण दुःखी ज छे; दुःखी कहो के संसारतत्त्व कहो;
तत्त्वनो यथार्थ निश्चय नहि होवाथी ते अविवेकी छे, विवेकचक्षु तेने ऊघडयां नथी. अहा! संसारनां
घोर दुःखथी आत्मरक्षा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वडे थाय छे; एवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट
करीने जेओ स्वरूपमां ठर्या छे... एवा ठर्या छे के तेमांथी बहार नीकळवाना आळसु छे,–तेमां ज मग्न
रहे छे, प्रशांत थईने स्वरूपमां जामी गया छे तेथी ‘अयथाचरण’ थी एटले के रागादिथी रहित छे,
वीतराग थईने शांत–निर्विकल्प रसने झीली रह्या छे, आनंदना अनुभवमां झूले छे, ज्यां
व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प पण नथी, निर्विकल्प थईने आत्मरसने पी रह्या छे, स्वरूपमां एकमां ज
अभिमुख थईने वर्ते छे,–आ रीते मुक्त थवानी क्रियारूपे परिणमी रहेला आवा साक्षात् श्रमण ते
मोक्षतत्त्व छे. ते भवनो अंत करीने हवे बीजुं शरीर धारण नहि करे; हमणां ज केवळज्ञान प्रगट करीने
मोक्षने साधशे.
मोक्षतत्त्वनुं साधन शुं छे ते हवे त्रीजुं रत्न (गाथा २७३) प्रकाशशे.
ङ्क