Atmadharma magazine - Ank 216
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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आसो : २४८७ : :
त्त्
गतांकथी चालु
१०. शंका–आ व्यवहारनो जनक (उत्पन्न करनार) उपनय छे ए केवी रीते?
समाधान–भेदनो उत्पादक सद्भूतव्यवहार छे, उपचारनो उत्पादक असद्भूतव्यवहार छे अने
उपचारथी पण उपचारनो उत्पादक उपचरित असदभूत व्यवहार छे. अने जे आ भेदलक्षणवाळो तथा
उपचार लक्षणवाळो अर्थ छे ते अपरमार्थ छे. माटे व्यवहार अपरमार्थनो प्रतिपादक होवाथी अपरमार्थरूप
छे. आ आचार्य देवसेननुं कथन छे. आथी तेमणे ज्यारे एक अखंड द्रव्यमां गुण–गुणी आदिना आश्रयथी
थनार सद्भूत व्यवहारने ज अपरमार्थभूत बताव्यो छे तो एवी अवस्थामां बे द्रव्योना आश्रयथी कर्ता–कर्म
आदिरूप जे उपचरित अने अनुपचरित असद्भूत व्यवहार थाय छे तेने परमार्थभूत केवी रीते मानी
शकाय? अर्थात् मानी शकातुं नथी ते स्पष्ट ज छे.
११. अहीं कोई प्रश्न करे छे के जो भिन्न कर्ता–कर्म आदिरूप व्यवहार उपचरित ज छे तो शास्त्रोमां
तेनो निर्देश केम करवामां आव्यो नथी? समाधान ए छे के एक तो निमित्त (व्यवहार हेतु) नुं ज्ञान
कराववानुं एनुं मुख्य प्रयोजन छे तेथी ए कथन करवामां आव्युं छे. आलापपद्धतिमां कह्युं पण छे–
सति निमित्ते प्रयोजने च उपचारः प्रवर्तते।
(१) निमित्त अने प्रयोजन होतां उपचारनी प्रवृत्ति थाय छे.
(२) बीजुं उपचरित अर्थना प्रतिपादन वडे अनुपचरित (निश्चय) अर्थनो बोध थई जाय छे तेथी
एनुं कथन करवामां आव्युं छे. नयचक्रमां कह्युं पण छे–
तह उवयारो जाणह साहणहेऊ अणुवयारे।। २८८।।
तेवी ज रीते अनुपचारनी सिद्धिनो हेतु उपचारने जाणो.
१२. अहीं एम समजवुं जोईए के जे वचन पोते असत्यार्थ होवा छतां पण ईष्टार्थनुं ज्ञान
कराववामां हेतु छे ते लोकव्यवहारमां असत्य मनातुं नथी. दाखला तरीके ‘चन्द्रमुखी’ शब्द ल्यो. आ शब्द
एवी स्त्री माटे वपराय छे जेनुं मुख मनोज्ञ अने तेजस्वी (–आभावाळुं) होय. ए ईष्टार्थ छे. ‘चन्द्रमुखी’
शब्दथी ए अर्थनुं ज्ञान थई जाय छे तेथी लोकव्यवहारमां एवो वचन प्रयोग थाय छे. तथा एज
अभिप्रायथी शास्त्रोमां पण एने स्थान आपवामां आव्युं छे, परंतु एना बदले जो कोई ए शब्दनो
अभिधेय अर्थ ग्रहण करीने एम मानवा लागे के अमुक स्त्रीनुं मुख चन्द्रमा ज छे तो ते असत्य ज गणाशे.
केम के कोई पण स्त्रीनुं मुख कदी चन्द्रमा थयुं नथी अने थई शकतुं पण नथी.