: ८ : आत्मधर्म : २१६
बंनेने जाणीने, पोताना चिदानंद सुखस्वभाव तरफ वळतां शरीरादिमां सुख होवानी भ्रांति टळी जाय छे. ते
भ्रांति टळतां अनादिनुं दुःख टळी जाय छे, ने आत्माना स्वभावना अतीन्द्रिय सुखनुं अपूर्व वेदन थाय छे.
आ ज सुखी थवानो उपाय छे.
आत्मा अने शरीर वगेरे पदार्थोनुं स्वरूप जे प्रमाणे छे ते प्रमाणे ज्ञानी–अंतरात्मा जाणे छे. आत्मा
तो ज्ञान–आनंदस्वरूप छे. ने शरीर तो जड–अचेतन–अनात्मा छे अजीव छे; ते अजीवमां सुखदुःख के ज्ञान
नथी; मारी सत्ता ते अजीवथी त्रणे काळे जुदी छे. आम भेदज्ञान वडे निरंतर पोताना आत्माने देहथी भिन्न ज
देखे छे. ।। प७।।
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...जगतथी... जुदो...
जगत साथे तोडी...ने...आत्मा साथे जोडी
जे आत्माने संसारबंधनथी त्रास लाग्यो होय अने जे पोताना
आत्माने ते बंधनथी छोडाववा मांगतो होय, ते जीव जगत साथेनो संबंध
तोडीने आत्मा साथे संबंध जोडे छे ते आ प्रमाणे–
जगतना पदार्थोथी हुं अत्यंत जुदो,
कोने करुं हुं राजी?–ने कोनाथी थाउं हुं राजी?
दुनिया दुनियामां...ने हुं मारामां.
हुं ज्ञान...ने पदार्थो ज्ञेय.
ज्ञेयो ज्ञेय पणे स्वकीय उत्पाद–व्यय–ध्रुवमां परिणमी रह्या छे, हुं मारा
ज्ञानस्वभावमां ज स्वकीय उत्पाद–व्यय–ध्रुवपणे परिणमुं.–आम निर्णय करीने,
धर्मीजीव, जगत साथेनो संबंध तोडीने, अने ज्ञानस्वभाव साथे संबंध जोडीने
तेना आश्रये सम्यग्दर्शनादि निर्मळभावे परिणमे छे...अने सिद्धपदने साधे छे.
(प्र. गा. १०१ ना प्रवचनमांथी)