Atmadharma magazine - Ank 216
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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आसो : २४८७ : :
रहे, वस्त्र फाटी जाय ने पहेरनार टकी रहे, तेम देह नष्ट थई जाय ने आत्मा तो कायम टकी रहे, आवो
अरूपी–ज्ञानमय आत्मा हुं छुं. एम आत्माने अंतरमां स्थिर थईने देखवो, ने देहादिने पोताथी भिन्न देखवा.
देह ते हुं नथी–एम सामान्यपणे विचारे पण आत्मानुं वास्तविकस्वरूप शुं छे–ते जो न जाणे तो खरेखर तेणे
देहथी जुदो आत्मा मान्यो नथी. माटे अहीं तो अस्ति सहित नास्तिनी वात छे एटले के ‘ज्ञान–आनंदस्वरूप
आत्मा हुं छुं’–एम आत्माने लक्षमां लेता देहादिमां आत्मबुद्धि छूटी जाय छे. आ रीते देहथी भिन्न आत्माने
जाण्या वगर सुखनी प्राप्ति थाय नहि; केमके सुखनी सत्ता तो आत्मामां छे, कांई देहमां सुख नथी ज्यां सुखनी
सत्ता छे तेने जाण्या वगर कदी सुख थाय नहि; शरीरमांथी के ईन्द्रियविषयोमांथी सुख लेवा मांगे तो
अनंतकाळे पण ते मळे तेम नथी. केमके तेमां सुखनुं अस्तित्व छे ज नहि.
हे जीव! एकवार तुं विचार तो कर के जे सुखने तुं चाहे छे ते सुख क्यां छे? तुं जे सुखने मेळववा
मांगे छे ते सुखनुं अस्तित्व कये ठेकाणे छे? जे वस्तु मेळववा मांगे तेनुं अस्तित्व तो क्यांक होवुं ज जोईए.
तेना अस्तित्वने कबुल्या वगर ते मेळववानी भावना केम थाय? तुं सुख मेळववा मांगे छे तो ‘सुख क्यांक
छे’–एम तो तुं कबुले छे. तो ते सुख शेमां छे तेनो विचार कर. अने बीजुं–तुं सुख मेळववा मांगे छे तेनो
अर्थ ए पण थयो के वर्तमानमां तने सुख नथी पण दुःख छे; तो ते दुःख शा कारणे छे? तेनो पण विचार
कर. भाई! तुं दुःखी छे ने सुखी थवा मांगे छे, तो दुःख केम छे अने सुख क्यां छे ए बे वात जाणवी जोईए.
प्रथम तुं विचार कर के सुख क्यां छे? शुं आ देहमां सुख छे? देह तो अचेतन छे, तेमां मारुं सुख
नथी. ईन्द्रियविषयो–स्पर्श–रस–गंध–रूप–शब्द वगेरेमां पण मारुं सुख नथी; केमके अनादिकाळथी ते विषयो
प्रत्ये में वलण कर्युं छतां मने किंचित् सुख न मळ्‌युं. माटे ते विषयोमां मारुं सुख नथी. बाह्य विषयो तरफना
वलणथी जे रागद्वेषनी लागणी थाय छे तेमां आकुळता छे तेथी ते दुःखरूप छे, तेमां पण मारुं सुख नथी.
मारा सुखनी सत्ता कोई बाह्य पदार्थमां नथी. मारुं सुख मारामां ज छे, सुख तो मारो स्वभाव ज छे. जेम
मारो आत्मा ज्ञानस्वरूप छे तेम सुखस्वरूप पण मारो आत्मा ज छे, मारा आत्मामां ज सुखनी सत्ता छे,
मारा आत्मामां ज सुखनुं अस्तित्व छे, मारो आत्मा ज सुखथी भरेलो छे. जेम कडवाश ते अफीणनो
स्वभाव छे, खटाश ते लींबुनो स्वभाव छे, तेम सुख ते मारो स्वभाव ज छे. मारा आत्मस्वभावमां सन्मुख
थतां मने शांति अने सुखनुं वेदन थाय छे, अनादि काळथी बाह्य विषयोनी सन्मुखताथी जे सुखनुं वेदन कदी
न थयुं ते सुखनुं वेदन आत्म–सन्मुखताथी थाय छे,–माटे मारो आत्मा ज सुखस्वरूप छे.
आ रीते आत्मामां ज सुख छे–एम सुखना अस्तित्वनो निर्णय करवो जोईए. आवो निर्णय करीने
आत्मस्वभावमां एकाग्र थवुं ते ज सुखनो उपाय छे. ज्यां सुख छे तेमां एकाग्र थवुं ते ज सुखी थवानो
उपाय छे; जेम जेम आत्मस्वभावमां एकाग्रता थती जाय तेम तेम सुख वधतुं जाय छे.
उपर प्रमाणे सुख अने तेना उपायनो निर्णय करतां ‘दुःख केम छे तेनो पण निर्णय थई जाय छे. ते
आ प्रमाणे–
मारा आत्मामां ज सुख होवा छतां तेने में न जाण्युं ने तेमां एकाग्रता न करी, आत्माना सुखने
चूकीने में शरीरादि बाह्यविषयोमां सुख मान्युं ने भ्रांतिथी बहारमां भटक्यो तेथी हुं दुःखी थयो. आ रीते
मारी भ्रांतिथी ज हुं दुःखी थयो, कोई बीजाए मने दुःखी नथी कर्यो.
आ प्रमाणे, सुखनी सत्ता अने दुःखनुं कारण ए