Atmadharma magazine - Ank 216
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : २१६
परमात्मा थया, ते शुं चीज छे? एने ओळखवानी एकवार जिज्ञासा तो कर. सर्वज्ञ भगवाननी
दिव्यवाणीमां जेनी झबक उठी...जेना गाणां दिव्यध्वनिए अने संतोए गाया, एवुं तारुं आत्मस्वरूप शुं छे
तेने ओळखतो, तारी असमाधि टळे, ने तने सम्यग्दर्शनादि समाधि थाय. अचेतनने आत्मा माने तेने
समाधि क्यांथी थाय? परने आत्मा मानीने तेमां राग–द्वेष करीकरीने जीव चोरासी लाख योनिमां परिभ्रमण
करीने महादुःखित थई रह्यो छे.
।। प६।।
अरे जीव! शरीरादि अचेतनने आत्मा मानवाथी तो घोर संसार दुःख तें भोगव्या छे, माटे ते
शरीरादि बाह्यपदार्थोमां आत्मबुद्धि छोड...शरीरने अचेतनपणे देख, ने तारा आत्माने तेनाथी जुदो
चैतन्यस्वरूप देख, एम हवे कहे छे–
पश्येत्निरंतरं देहमात्मनोऽनात्मचेतसा
अपरात्मधियाऽन्येषामात्मतत्त्वे व्यवस्थितः ।। ५७।।
हे जीव! तुं आत्मस्वरूपमां स्थिर थईने आत्माने चैतन्यस्वरूप देख...ने शरीरादिने अचेतन–
अनात्मा रूपे निरंतर देख...तथा ए ज प्रमाणे बीजा जीवोमां पण तेमना देहने अचेतन जाण अने आत्माने
चैतन्य स्वरूप देख.
जुओ, धर्मी अंतरात्मा निरंतर आ प्रमाणे जडचेतनने भिन्न भिन्न स्वरूपे ज देखे छे.
चैतन्यस्वरूप ज हुं छुं, ने देहादिक तो जड छे–अचेतन छे. एम निरंतर भिन्न ज देखे छे. कोई क्षणे पण
देहादिनी क्रियाने पोतानी देखता नथी.
जुओ, शरीरने अचेतन जोवानुं कह्युं,–पण कई रीते? देहनी सामे जोईने ‘आ अचेतन छे’–एम
एकला पर सन्मुखनी वात नथी, पण आत्मामां स्थित थईने देहने अचेतन देख–एम कह्युं छे, एटले
आत्मा तरफ वळीने देहने भिन्न देखवानुं कह्युं छे. ज्यां अंतर्मुख थईने चैतन्यस्वरूपपणे ज पोताने
प्रतीतमां–अनुभवमां लीधो त्यां देहादिने पोताना अनुभवथी जुदा जाण्या...रागने पण अनुभवथी जुदो
जाण्यो आ रीते ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा तरफ वळीने तेने ज तारा निजरूपे देख, ने तेनाथी बाह्य समस्त
पदार्थोने अनात्मा तरीके देख. धर्मीने पर तरफ लक्ष जाय त्यारे ते परने पर तरीके ज जाणे छे, तेमां क्यांय
आत्मबुद्धि थती नथी; निरंतर भेदज्ञान वर्ती रह्युं छे, आत्मज्ञाननी धारा अच्छिन्नपणे चाली ज रही छे.
माटे आचार्य देव कहे छे के हे जीव! चैतन्य तरफ वळीने तुं तारा आत्माने निरंतर चेतनास्वरूपे ज देख, ने
देहादिने अनात्मा तरीके ताराथी जुदा ज देख. अंतरात्मा तो आम देखे ज छे, पण बहिरात्माने समजावे छे
के तुं पण आम देख,–तो तारुं अनादिनुं बहिरात्मपणुं टळे ने अंतरात्मपणुं थाय...एटले दुःख टळीने समाधि
थाय. जेने भेदज्ञान थई गयुं छे एवा धर्मात्माने तो हरक्षणे–सूतां के जागतां, खातां के पीतां, चालतां के
बोलतां–निरंतर पोतानो आत्मा दिहादिथी अत्यंत भिन्न ज भासे छे, देहादिकने सदा जडरूपे ज ते देखे
छे...राग–द्वेषना परिणाम थाय छे तेने पण अनात्मा तरीके देखे छे ने तेनाथी भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूपे ज
पोताने निरंतर देखे छे...आत्मा–अनात्मानुं जे भेदज्ञान थयुं ते भेदज्ञाननी भावना ने जागृति ज्ञानीने
निरंतर वर्त्या ज करे छे.
[वीर सं. २४८२ अषाड सुद १२ गुरुवार]
मारो आत्मा तो ज्ञान–आनंदथी भरेलो अरूपी पदार्थ छे, आ शरीर ते हुं नथी. जेम मकानमां रहेलो
माणस ते मकानथी जुदो छे, मकान ते माणस नथी; तथा वस्त्र पहेरनारो वस्त्रथी जुदो छे, तेम आ देहरूपी
मकानमां रहेलो आत्मा देहथी जुदो छे, देह ते आत्मा नथी. मकान पडी जाय ने माणस जीवतो