दिव्यवाणीमां जेनी झबक उठी...जेना गाणां दिव्यध्वनिए अने संतोए गाया, एवुं तारुं आत्मस्वरूप शुं छे
तेने ओळखतो, तारी असमाधि टळे, ने तने सम्यग्दर्शनादि समाधि थाय. अचेतनने आत्मा माने तेने
समाधि क्यांथी थाय? परने आत्मा मानीने तेमां राग–द्वेष करीकरीने जीव चोरासी लाख योनिमां परिभ्रमण
करीने महादुःखित थई रह्यो छे.
चैतन्यस्वरूप देख, एम हवे कहे छे–
चैतन्य स्वरूप देख.
देहादिनी क्रियाने पोतानी देखता नथी.
आत्मा तरफ वळीने देहने भिन्न देखवानुं कह्युं छे. ज्यां अंतर्मुख थईने चैतन्यस्वरूपपणे ज पोताने
प्रतीतमां–अनुभवमां लीधो त्यां देहादिने पोताना अनुभवथी जुदा जाण्या...रागने पण अनुभवथी जुदो
जाण्यो आ रीते ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा तरफ वळीने तेने ज तारा निजरूपे देख, ने तेनाथी बाह्य समस्त
पदार्थोने अनात्मा तरीके देख. धर्मीने पर तरफ लक्ष जाय त्यारे ते परने पर तरीके ज जाणे छे, तेमां क्यांय
आत्मबुद्धि थती नथी; निरंतर भेदज्ञान वर्ती रह्युं छे, आत्मज्ञाननी धारा अच्छिन्नपणे चाली ज रही छे.
माटे आचार्य देव कहे छे के हे जीव! चैतन्य तरफ वळीने तुं तारा आत्माने निरंतर चेतनास्वरूपे ज देख, ने
देहादिने अनात्मा तरीके ताराथी जुदा ज देख. अंतरात्मा तो आम देखे ज छे, पण बहिरात्माने समजावे छे
के तुं पण आम देख,–तो तारुं अनादिनुं बहिरात्मपणुं टळे ने अंतरात्मपणुं थाय...एटले दुःख टळीने समाधि
थाय. जेने भेदज्ञान थई गयुं छे एवा धर्मात्माने तो हरक्षणे–सूतां के जागतां, खातां के पीतां, चालतां के
बोलतां–निरंतर पोतानो आत्मा दिहादिथी अत्यंत भिन्न ज भासे छे, देहादिकने सदा जडरूपे ज ते देखे
छे...राग–द्वेषना परिणाम थाय छे तेने पण अनात्मा तरीके देखे छे ने तेनाथी भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूपे ज
पोताने निरंतर देखे छे...आत्मा–अनात्मानुं जे भेदज्ञान थयुं ते भेदज्ञाननी भावना ने जागृति ज्ञानीने
निरंतर वर्त्या ज करे छे.
मकानमां रहेलो आत्मा देहथी जुदो छे, देह ते आत्मा नथी. मकान पडी जाय ने माणस जीवतो