Atmadharma magazine - Ank 216
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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आसो : २४८७ : :
क्षण पण तेणे समाधि प्राप्त करी नथी. सम्यग्दर्शन ते पहेली समाधि छे, ते पूर्वे एक क्षण पण प्राप्त कर्युं
नथी. अनादिकाळथी मिथ्यात्वना संस्कारने लीधे बहिरात्मानी दशा केवी थई छे ते बतावे छे–
चिरं सुषुप्तास्तमसि मूढात्मानः कुयोनिषु ।
अनात्मीयात्मभूतेषु ममाहमिति जाग्रति ।। ५६।।
शरीरने ज आत्मा मानीने आ मूढ अज्ञानी मूर्ख जीव मिथ्यात्वरूपी अंधकारने लीधे अनादिकाळथी
निगोद अने नरकादि कुयोनीओमां सुषुप्त छे–मूर्छाई गयो छे–ज्ञानशक्ति हणाईने जड जेवो थई गयो छे; जे
आत्मानुं स्वरूप नथी एवा अनात्मभूत शरीर–स्त्री–पुत्रादिमां ‘आ मारां छे ने हुं ते ज छुं’ एम जागृति
करे छे. चैतन्यतत्त्वमां जागृति नथी करतो, त्यां तो मूढ थईने सुप्त छे, ते जड पदार्थोने ज पोताना मानीने
तथा पोताने जडरूप मानीने संसारमां परिभ्रमण करे छे. आवा अज्ञानभावने लीधे बहिरात्माजीवे आ
संसारमां मिथ्याद्रष्टिने योग्य एकेय भव बाकी राख्या नथी, चारे गतिमां अनंतवार जन्मी चूक्यो छे.
शरीरने पोतानुं मानीने शरीरो ज धारण कर्या छे.
निगोदथी मांडीने असंज्ञी पंचेन्द्रिय सुधीना अवतारमां तो मूढ जीव एवो सुसुप्त हतो के विचार शक्ति
ज न हती के ‘हुं कोण छुं?’ क्यारेक अनंतकाळे पंचेन्द्रिय–संज्ञी थयो ने ज्ञानमां विचारशक्ति जागृत थई त्यारे
पण मूढताने लीधे अनात्मभूत एवा शरीरादिने ज पोतानुं रूप माने छे, पण देहादिथी भिन्न चैतन्यतत्त्व हुं
छुं–एम जाणतो नथी. जीवना वास्तविक स्वरूप सिवाय बीजे क्यांक आत्मबुद्धि करीने जीव संसारमां रखड्यो
छे. अंतरमां ज्ञाताद्रष्टा स्वभावनी द्रष्टि वगर, रागने ज पोतानुं वेदन मानीने, कोईकवार अगियार अंग
तथा नवपूर्व सुधीनो ज्ञाननो उघाड थयो, त्यारे पण तेणे रागादिरूप अनात्मभावने ज आत्मा मान्यो, पण
आत्माना वास्तविक स्वरूपने न जाण्युं. तेना ज्ञाननो विषय आत्मा नथी पण अनात्मा ज छे.
चैतन्यस्वरूपने लक्षमां लईने तेमां एकता कर्या वगर ज्ञानना उघाडने परविषयोमां ज जे रोके छे, तो
तेना ज्ञाननो विषय अनात्मा ज छे, आत्मविषयमां तो ते ऊंघे ज छे, आत्माने जाणवा माटे ज्ञाननी
जागृति तेने थई नथी. अरे प्रभु! अनंतकाळमां तें कदी तारा आत्माने जाण्यो नथी, ने अनात्माने ज
ज्ञाननो विषय बनावीने तेने ज तें आत्मभूत मान्या छे. अनात्मा कहेतां एकलुं शरीर ज न लेवुं; शरीर तो
जड अनात्मा छे ज, पण जे ज्ञाननो उघाड एकला पर तरफ ज काम करे, आत्मामां एकता न करे ने रागमां
ज एकता करे ते पण खरेखर अनात्मा छे. आत्मा साथे जेनी एकता नहि ते अनात्मा. अज्ञानी कहे छे के
शुभरागथी–पुण्यथी धर्म थाय छे, अहीं कहे छे के शुभराग के पुण्य ते अनात्मा छे. हे जीव! तें अनात्माने ज
आत्मा मानी मानीने अनंत संसारमां कुयोनिमां तें एटला भवदुःखो सहन कर्यां के सर्वज्ञ भगवान ज ते
जाणे; ए दुःख वाणीथी कह्यां जाय तेम नथी. भगवाने जाण्यां ने तें भोगव्यां. कोई कर्मने लीधे नहि पण
तारी मूढताथी तें अनात्माने आत्मा मान्यो तेथी ज तें एवा घोर दुःखो भोगव्या. एकवार संयोगबुद्धि छोड,
शरीर ने रागथी पार चैतन्यस्वभावने एकवार लक्षमां ले तो तने अपूर्व सुख थाय, ने तारुं अनादिनुं
भवभ्रमण टळी जाय.
अनादिकाळथी अनात्माने आत्मा मानीने मूर्छाथी भवभ्रमण करे छे ते असमाधि छे...रागमां क्यांय
आत्मानी समाधि नथी–शांति नथी. देहादिथी भिन्न मारुं चैतन्यतत्त्व ज मारा विश्रामनुं स्थान छे, ने तेना
लक्षे ज मने समाधि छे.–आम एकवार हे जीव! तारा आत्माने लक्षमां तो ले. जे स्वरूपने समज्या वगर
अनादिकाळथी अनंत दुःख पाम्यो, ने जे स्वरूपने जाणी जाणीने अनंतजीवो पूर्ण सुख प्रगट करीने