चैतन्यस्वरूप छे–तेनो बोध ते करतो नथी; एटले जडमां ज आत्मपणानी भ्रांतिने लीधे तेने भिन्न
आत्मानी भावना होती नथी. ज्ञानी विलक्षणद्वारा जड–चेतनने भिन्नभिन्न जाणे छे, शरीर–वाणी वगेरे
जडनी क्रिया स्वप्नेय तेने पोतानी भासती नथी, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज ते पोतानो समजे छे.
चैतन्यस्वभाव सिवाय बीजा कोई पदार्थोमां स्वप्नेय पोतापणानी भ्रांति तेने थती नथी, एटले पर्याये
पर्याये–क्षणे क्षणे ने कार्ये कार्ये तेने भिन्न आत्मानी भावना वर्त्या ज करे छे. कांई गोखी गोखीने ए
भावना थती नथी पण अंदर भेदज्ञान परिणमी गयुं छे ते भेदज्ञानना बळे सहजपणे भिन्नपणानी
भावना सदाय वर्त्या ज करे छे, आ भेदज्ञानना अभ्यासना बळे वैराग्य अने चारित्रदशा प्रगट करीने ते
ज्ञानी अल्पकाळमां देहथी अत्यंत भिन्न एवी चारित्रदशाने साधे छे.
माने छे ते कोई पण पदार्थ तेना हितकर के उपकारक नथी,–एम हवेनी गाथामां बतावे छे:–
पदार्थमां रमवा लागे छे तेम बाळक एवो अज्ञानी बहिरात्मा हित–अहितना विवेक वगर, स्वपरना भान
वगर, बाह्य ईन्द्रियविषयोमां सुख मानीने तेमां रमे छे, पण जगतमां एवो कोई ईन्द्रियविषय नथी के जे
आत्माने सुख आपे. तत्त्वद्रष्टिथी जोतां ईन्द्रियसुख ते सुख छे ज नहींं, दुख ज छे; केमके बंधनुं कारण छे,
आकुळता उपजावनार छे, विषम छे, क्षणभंगुर छे, पराधीन छे, विघ्नसहित छे, सुख तो तेने कहेवाय के जे
आत्माधीन होय–स्वाधीन होय, निराकुळ होय, शांत होय, बंधन रहित होय, जेमां अन्य पदार्थोनी अपेक्षा
न होय.–आवा सुखने अज्ञानी जाणतो नथी ने मृगजळ जेवा बाह्यविषयोमां सुखनी आशाथी अनंतकाळथी
भमे छे. बापु! एमां क्यांय तारुं सुख नथी, ने ए कोई पदार्थो तने सुख देवा समर्थ नथी. क्षेम करनारो ने
सुख देनारो एवो तो तारो आत्मा ज छे. माटे परथी भिन्न आत्माने जाणीने भेदज्ञानवडे दिन–रात तेनी ज
भावना कर. अज्ञानभावनाने लीधे दिनरात बाह्य पदार्थोनी प्राप्तिनुं ज रटण अज्ञानी जीव करी रह्यो छे,
परंतु परद्रव्य कदी अंशमात्र आत्मानुं थतुं नथी, तेथी तेने मात्र आकुळता अने दुःखनुं ज वेदन थाय छे. जो
स्वद्रव्यने परथी भिन्न जाणीने, स्वरूपनी प्राप्तिना प्रयत्नमां लागे तो अंतर्मुहूर्तमां तेनी प्राप्ति थाय एटले
के निराकुळ सुखनो अनुभव थाय. अहीं बहिरात्मानी प्रवृत्ति बतावीने ते छोडवानो उपदेश छे. अने
अंतरात्मानी प्रवृत्ति बतावीने ते प्रगट करवानो उपदेश छे.