Atmadharma magazine - Ank 216
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : २१६
अज्ञानी तो शरीरादिने ज आत्मा मानतो होवाथी बाह्य विषयोने पोताना उपकारी माने छे...एटले देहादिथी
भिन्न आत्मस्वरूपनी भावना ते भावतो नथी. ज्ञानी निरंतर देहादिथी भिन्न आत्माने भावे छे.
अज्ञानी तो जड–चेतनने एक बीजा साथे भेळवी दे छे; आत्माथी विलक्षण एवी जे मूर्त–पुद्गलोनी
रचना–शरीर, वचन वगेरे–तेने ते आत्माना ज माने छे, पण आत्मा तो पुद्गलथी भिन्न लक्षणवाळो
चैतन्यस्वरूप छे–तेनो बोध ते करतो नथी; एटले जडमां ज आत्मपणानी भ्रांतिने लीधे तेने भिन्न
आत्मानी भावना होती नथी. ज्ञानी विलक्षणद्वारा जड–चेतनने भिन्नभिन्न जाणे छे, शरीर–वाणी वगेरे
जडनी क्रिया स्वप्नेय तेने पोतानी भासती नथी, चैतन्यस्वरूप आत्माने ज ते पोतानो समजे छे.
चैतन्यस्वभाव सिवाय बीजा कोई पदार्थोमां स्वप्नेय पोतापणानी भ्रांति तेने थती नथी, एटले पर्याये
पर्याये–क्षणे क्षणे ने कार्ये कार्ये तेने भिन्न आत्मानी भावना वर्त्या ज करे छे. कांई गोखी गोखीने ए
भावना थती नथी पण अंदर भेदज्ञान परिणमी गयुं छे ते भेदज्ञानना बळे सहजपणे भिन्नपणानी
भावना सदाय वर्त्या ज करे छे, आ भेदज्ञानना अभ्यासना बळे वैराग्य अने चारित्रदशा प्रगट करीने ते
ज्ञानी अल्पकाळमां देहथी अत्यंत भिन्न एवी चारित्रदशाने साधे छे.
।। प४।।
* * *
आत्मस्वरूपने नहि जाणनारो अने देहादि बाह्य पदार्थोमां आत्मभ्रांतिथी वर्तनारो अज्ञानी जीव ते
बाह्य पदार्थोने हितकर मानीने तेमां आसक्तचित्त रहे छे, परंतु जे पदार्थमां आसक्त थईने तेने ते हितकर
माने छे ते कोई पण पदार्थ तेना हितकर के उपकारक नथी,–एम हवेनी गाथामां बतावे छे:–
न तदस्तीन्द्रियार्थेषु यत् क्षेमंकरमात्मनः ।
तथापि रमते बालस्तत्रैवाज्ञानभावनात् ।। ५५।।
पांच ईन्द्रियना विषयोमां एवो कोईपण पदार्थ नथी के जे आत्माने क्षेमकर होय; तोपण बहिरात्मा
अज्ञानी जीव अज्ञानभावनाने लीधे तेमां ज रमण करे छे. जेम बाळक हित–अहितना विवेक वगर गमे ते
पदार्थमां रमवा लागे छे तेम बाळक एवो अज्ञानी बहिरात्मा हित–अहितना विवेक वगर, स्वपरना भान
वगर, बाह्य ईन्द्रियविषयोमां सुख मानीने तेमां रमे छे, पण जगतमां एवो कोई ईन्द्रियविषय नथी के जे
आत्माने सुख आपे. तत्त्वद्रष्टिथी जोतां ईन्द्रियसुख ते सुख छे ज नहींं, दुख ज छे; केमके बंधनुं कारण छे,
आकुळता उपजावनार छे, विषम छे, क्षणभंगुर छे, पराधीन छे, विघ्नसहित छे, सुख तो तेने कहेवाय के जे
आत्माधीन होय–स्वाधीन होय, निराकुळ होय, शांत होय, बंधन रहित होय, जेमां अन्य पदार्थोनी अपेक्षा
न होय.–आवा सुखने अज्ञानी जाणतो नथी ने मृगजळ जेवा बाह्यविषयोमां सुखनी आशाथी अनंतकाळथी
भमे छे. बापु! एमां क्यांय तारुं सुख नथी, ने ए कोई पदार्थो तने सुख देवा समर्थ नथी. क्षेम करनारो ने
सुख देनारो एवो तो तारो आत्मा ज छे. माटे परथी भिन्न आत्माने जाणीने भेदज्ञानवडे दिन–रात तेनी ज
भावना कर. अज्ञानभावनाने लीधे दिनरात बाह्य पदार्थोनी प्राप्तिनुं ज रटण अज्ञानी जीव करी रह्यो छे,
परंतु परद्रव्य कदी अंशमात्र आत्मानुं थतुं नथी, तेथी तेने मात्र आकुळता अने दुःखनुं ज वेदन थाय छे. जो
स्वद्रव्यने परथी भिन्न जाणीने, स्वरूपनी प्राप्तिना प्रयत्नमां लागे तो अंतर्मुहूर्तमां तेनी प्राप्ति थाय एटले
के निराकुळ सुखनो अनुभव थाय. अहीं बहिरात्मानी प्रवृत्ति बतावीने ते छोडवानो उपदेश छे. अने
अंतरात्मानी प्रवृत्ति बतावीने ते प्रगट करवानो उपदेश छे.
।। पप।।
[वीर सं. २४८२: अषाड सुद ११ बुधवार]
समाधिशतक गा. प६
अनादिकाळथी आत्माना स्वरूपने जाण्या वगर अज्ञानी जीव संसारमां परिभ्रमण करे छे, तेमां एक