आ शरीरने चलावे ने वाणी बोले ते ज आत्मा लागे छे. शरीर अने वाणीथी जुदुं तो आत्मानुं अस्तित्व
देखातुं नथी तो देहादिथी भिन्न आत्मानी भावना करवानुं कथन कई रीते योग्य छे? अज्ञानीनी आ शंकानुं
निराकरण करतां श्री पूज्यपाद स्वामी कहे छे के:–
भ्रान्तोऽभ्रान्तः पुन्स्तत्त्वं प्रथगेषां विबुध्यते ।। ५४।।
शरीर अने वचन छुं, हुं ज तेनो कर्ता छुं–एम ते अज्ञानी माने छे; एटले देहादिथी भिन्न चैतन्यस्वरूप
आत्मानी भावना ते भावतो नथी. परंतु भ्रांतिरहित एवा ज्ञानी धर्मात्मा तो वचनअने शरीरने जड
अचेतन जाणे छे, अने पोताना आत्माने तेनाथी भिन्न जाणीने तेनी ज निरंतर भावना भावे छे.
जड–चेतनना भेदज्ञानपूर्वक आत्मभावना भवाय छे, जेने भेदज्ञान नथी तेने साची आत्मभावना
होती नथी.
भिन्नभिन्न लक्षणो वडे बंनेने अत्यंत जुदा जाणे छे, ने आत्माने देहादिथी अत्यंत जुदो जाणीने तेनी ज
भावना भावे छे. आत्मा सिवाय बहारनी कोई चीजने पोतानी हितकर ते मानता नथी.