Atmadharma magazine - Ank 216
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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आसो : २४८७ : :
– परम शांति दातारी –
अध्यत्म भवन
भगवान श्री पूज्यपादस्वामीरचित ‘समाधि शतक’ उपर पू. गुरुदेवना
अध्यात्म भावना भरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सारर
[अंक २१३ थी चालु]
* * *
आत्मस्वरूपनी वारंवार चर्चा–भावना करवानुं कह्युं त्यां बहिरात्मा अज्ञानी प्रश्न पूछे छे के प्रभो!
आ शरीर अने वचनथी जुदो तो आत्मा अमने देखातो नथी तो तेनी भावना कई रीते करवी? अमने तो
आ शरीरने चलावे ने वाणी बोले ते ज आत्मा लागे छे. शरीर अने वाणीथी जुदुं तो आत्मानुं अस्तित्व
देखातुं नथी तो देहादिथी भिन्न आत्मानी भावना करवानुं कथन कई रीते योग्य छे? अज्ञानीनी आ शंकानुं
निराकरण करतां श्री पूज्यपाद स्वामी कहे छे के:–
शरीरे वाची चात्मानं सन्धत्तै वाक्शरीरयोः ।
भ्रान्तोऽभ्रान्तः पुन्स्तत्त्वं प्रथगेषां विबुध्यते ।। ५४।।
वचन अने शरीरना स्वरूपमां जेने भ्रांति छे एटले के ते वचन अने शरीर तो जड पुद्गल छे
एम जे नथी जाणतो एवो बहिरात्मा ज शरीर अने वचनमां आत्मानो आरोप करे छे. एटले के हुं ज
शरीर अने वचन छुं, हुं ज तेनो कर्ता छुं–एम ते अज्ञानी माने छे; एटले देहादिथी भिन्न चैतन्यस्वरूप
आत्मानी भावना ते भावतो नथी. परंतु भ्रांतिरहित एवा ज्ञानी धर्मात्मा तो वचनअने शरीरने जड
अचेतन जाणे छे, अने पोताना आत्माने तेनाथी भिन्न जाणीने तेनी ज निरंतर भावना भावे छे.
जड–चेतनना भेदज्ञानपूर्वक आत्मभावना भवाय छे, जेने भेदज्ञान नथी तेने साची आत्मभावना
होती नथी.
ईच्छा अनुसार देह–वचननी क्रिया थाय त्यां अज्ञानीने एवी भ्रांति थई जाय छे के आ क्रियाओ
मारी ज छे; देहादि जडनी क्रियाथी जुदुं पोतानुं अस्तित्व तेने भासतुं ज नथी. ते ज्ञानी तो जडचेतन बंनेना
भिन्नभिन्न लक्षणो वडे बंनेने अत्यंत जुदा जाणे छे, ने आत्माने देहादिथी अत्यंत जुदो जाणीने तेनी ज
भावना भावे छे. आत्मा सिवाय बहारनी कोई चीजने पोतानी हितकर ते मानता नथी.