Atmadharma magazine - Ank 216
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : २१६










पावापुरी मुक्तिधाममां भावभीनुं प्रवचन करतां गुरुदेवे कह्युं के: जेम
नदीना प्रवाहमां तरंग ऊठे तेम ज्ञानीना हृदयमां सम्यग्ज्ञाननो प्रवाह वहे छे,
तेमां आ भक्तिरूपी तरंगो उठ्या छे. ज्ञानीनी स्तुति पण जुदी जातनी होय
छे. ते भगवानने ओळखीने अने भगवाने शुं कह्युं तेनी परीक्षा करीने
भगवाननी स्तुति करे छे. भगवान सर्वज्ञ हता, भगवान वीतराग हता,
भगवान हितोपदेशी हता. भगवाने हितोपदेशमां शुं कह्युं? भगवाने पोते तो
पोताना आत्मानुं परम हित साधी लीधुं अने पछी वाणीमां एवा हितनो ज
उपदेश नीकळ्‌यो के अहो आत्मा! तारो स्वभाव एक क्षणमां परिपूर्ण ज्ञान–
आनंदथी भरेलो छे, अमारा ने तारा आत्मामां फेर नथी. तुं जे हित प्राप्त
करवा मांगे छे ते तारा आत्मानी शक्तिमांथी ज आवशे, क््यांय बहारथी नहि
आवे; माटे तारा स्वभावमां अंतर्मुख था.–आम स्वभावसन्मुख थवानो जे
परम हितोपदेश सर्वज्ञ भगवाने आप्यो, तेनाथी ज भगवाननी महत्ता छे.

आपणुं “आत्मधर्म” मासीक आवता अंके १९ मा वर्षमां प्रवेश करशे.
आगामी अंक कारतक सुद एकमना रोज प्रगट थशे. बेसता वर्षना शुभदिने
आपनो अंक वखतसर मेळववा आपनुं लवाजम तुरत मोकली आपशो
“आत्मधर्म” ना लवाजमनी साथे बीजी कोई रकमो न मोकलवा विनंती छे;
पुस्तक वगेरेनी बीजी कांई रकम मोकलवानी होय तो ते जुदी मोकलवी;–जेथी
व्यवस्थामां सुगमता रहे.
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