Atmadharma magazine - Ank 216
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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आसो : २४८७ : ११ :
एसा जानना। बहुरिकहीं व्यवहारनयकी मुख्यता लिए व्याख्यान है ताकौ जैसे है नाहीं निमित्तादि
अपेक्षा उपचार किया है, एसा जानना।
१६. आ रीते एक द्रव्यनी विवक्षित पर्याय बीजा द्रव्यनी विवक्षित पर्यायनी कर्ता आदि छे अने ते
पर्याय तेनुं कर्म वगेरे छे ए कथन परमार्थभूत अर्थनुं प्रतिपादक नहोता उपचरित (अयथार्थ) केम छे एनी
टुंकमां मीमांसा करी. ए ज न्याये एक द्रव्य बीजा द्रव्यने परिणमावे छे के तेमां अतिशय उत्पन्न करे छे ए
प्रकारनुं जेटलुं कथन शास्त्रोमां मळे छे तेने पण उपचरित ज जाणवुं जोईए. केमके अहीं एक द्रव्यनी
विवक्षित पर्याय अन्य द्रव्यना परिणमनमां निमित्त (व्यवहार हेतु) छे. फक्त आ वात जणाववा माटे, तेने
अन्य द्रव्यने परिणमावनार अथवा तेने अन्य द्रव्यमां अतिशय उत्पन्न करनार कहेवामां आव्युं छे, आ
कथन परमार्थभूत छे ए अभिप्राय ध्यानमां राखीने नहि. तात्पर्य ए छे के शास्त्रोमां आ कथन निमित्तनी
पोताना क्रिया परिणाम द्वारा निमित्ततानुं ज्ञान कराववा माटे करवामां आव्युं छे. बीजुं कोई प्रयोजन नथी.
विशेष खुलासो अमे आगळना प्रकरणोमां करवाना छीए ज
१७. आ रीते एक द्रव्य बीजा द्रव्यनो कर्ता आदि छे अथवा तेने परिणमावे छे अथवा तेमां
अतिशय उत्पन्न करे छे ए कथन परमार्थभूत न होतां उपचरित केवी रीते छे तेनी मीमांसा करी. साथोसाथ
शास्त्रोमां जेटला कोई निमित्तना कथन मळे छे ते पण व्यवहार हेतुने ध्यानमां राखीने ज करवामां आवे छे
एनो पण प्रसंगवश विचार कर्यो.
१८. हवे शरीर मारुं, धन मारुं, देश मारो ईत्यादिरूपे जेटलो व्यवहार थाय छे ते उपचरित केवी
रीते छे एनो विचार करवानो छे. ए तो आगम, गुरु, उपदेश युक्ति अने स्वानुभव प्रत्यक्षथी ज सिद्ध छे के
‘अहं’ पदथी वाच्य आत्मा नामनो पदार्थ स्वतन्त्र द्रव्य छे अने धन आदि पदार्थ स्वतंत्र द्रव्य छे. तेथी आ
आपोआप साबित थाय छे के अत्यंत जुदा बे द्रव्योमां संबंध के एकत्वनुं ज्ञान करावनार जेटला कथन मळे
छे ते त्रणकाळमां परमार्थभूत होई शके नहि. माटे शरीर मारूं, धन मारूं ईत्यादि रूप जेटलो व्यवहार थाय छे
तेने पण पूर्वोक्त उपचरित कथननी जेम असत्य ज जाणवो जोईए. आ रीते शरीर मारूं, धन मारूं, देश
मारो ईत्यादि रूपे जेटलुं कथन मळे छे ते पण उपचरित केम छे तेनी संक्षेपमां मीमांसा करी. हवे प्रसंगोपात
उपचरित कथन पर विस्तृत प्रकाश फेंकवा माटे नैगमादि केटलाक नयोनो विषय कई रीते उपचरित छे तेनी
संक्षेपमां मीमांसा करीए छीए.–ए तो सुविदित छे के आगममां नैगमादि नयोनी गणना सम्यक् नयोमां
करवामां आवी छे तेथी प्रश्न थाय छे के जे एनो विषय छे ते परमार्थभूत छे तेथी एनी गणना सम्यक्
नयोमां करवामां आवी छे के एनुं कोई बीजुं कारण छे? समाधान ए छे के जे एनो विषय छे तेने द्रष्टिमां
राखीने आ सम्यक्नय कहेवामां आव्या नथी पण फलितार्थ (लक्ष्यार्थ) नी द्रष्टिथी ज एने सम्यक् कहेवामां
आव्या छे
१९. दाखला तरीके पर संग्रहनयना विषयनो महासत्तानी द्रष्टिए विचार करो ए तो दरेक
आगमनो अभ्यासी जाणे छे के जैनदर्शनमां स्वरूप सत्ता सिवाय एवी कोई सत्ता नथी जे बधा द्रव्योमां
तात्त्विक रीते एकता स्थापित करती होय. छतां पण खास अभिप्रायनी अपेक्षाए साद्रश्य सामान्यरूप
महासत्ताने जैनदर्शनमां स्थान मळ्‌युं छे. एनाथी एम बताववामां आव्युं छे के जो कोई कल्पित युक्तियोवडे
जड चेतन बधा पदार्थोमां एकत्व स्थापित करवा ईच्छे छे तो ते उपचरित महासत्तानो स्वीकार करीने तेना
वडे ज एम करी शके छे, परमार्थभूत स्वरूपअस्तित्व वडे नहि. आ रीते आगममां आ नयने स्वीकारवाथी
जणाय छे के जे आ नयनो विषय छे ते भले परमार्थभूत न होय पण तेनाथी फलितार्थरूपे स्वरूपअस्ति–