Atmadharma magazine - Ank 216
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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आसो : २४८७ : १३ :
ज्ञानीनी
ओळखाण
(समयसार गा. ७६ थी ७९ उपरना
भेदज्ञानप्रेरक अद्भुत प्रवचनोमांथी)
ज्ञानी थयेलो आत्मा कई रीते ओळखाय? तेनुं चिह्न शुं? एम शिष्यनो प्रश्न हतो; तेना उत्तरमां
आचार्य भगवाने कह्युं के जे ज्ञानी छे ते जीव ज्ञानस्वभावी पोताना आत्माने रागादिथी भिन्न जाणतो थको
पोताना निर्मळ ज्ञानपरिणामने ज करे छे, ए सिवाय अन्य कोई परभावोने ज्ञानना कार्यपणे जरापण
करतो नथी, तेनो ते जाणनार ज रहे छे.
हवे प्रश्न थाय छे के ज्ञानी पुद्गलकर्मने तेमज रागादि परिणामने जाणे छे, तो तेने जाणतां तेनी
साथे ते ज्ञानीने कर्ताकर्मपणुं छे के नथी? रागने जाणती वखते ज्ञानी रागनो कर्ता थाय छे के नथी
थतो? तेना उत्तरमां आचार्यदेव कहे छे के ज्ञानी रागादिने जाणतो होवा छतां ते तेमां अंतर्व्यापक थतो
नथी, रागने ते पोताना ज्ञानथी बाह्यस्थित जाणे छे, एटले रागादिनी शरूआतमां, मध्यमां के अंतमां
ते जरापण व्यापतो नथी, तेमां जरापण तन्मय थतो नथी, तेने ज्ञानस्वरूपमां ग्रहण करतो नथी, तेमां
एकतारूपे परिणमतो नथी ने ते रागरूपे ऊपजतो नथी; ते रागने जाणती वखते रागथी भेदज्ञानपणे
ज परिणमे छे, ज्ञानस्वरूपने ज स्वपणे ग्रहण करीने तेमां एकतारूपे परिणमे छे, रागथी जुदा ज्ञानपणे
ज ऊपजे छे. आ रीते ज्ञानपणे ज ऊपजता ते ज्ञानीने रागादि साथे के परनी साथे कर्ताकर्मपणुं नथी.
रागने जाणवाना उपयोग वखते पण तेने राग साथे कर्ताकर्मपणुं जराय नथी, ते उपयोग साथे ज
कर्ताकर्मपणुं छे.
जुओ, साधकनी दशा! साधकनुं वहाण रागना आधारे नथी चालतुं, ते तो स्वावलंबी चैतन्यना
आधारे ज चाले छे. अहा. साधक–ज्ञानी–धर्मात्मा पोताना उपयोगमां रागादिने जरापण ग्रहण ज करता
नथी तो ते रागना अवलंबने साधकनी शुद्धता वधे एम केम बने? चैतन्यस्वभावना ज अवलंबने
साधकनी शुद्धता वधे छे–ए नियम छे.
जेम पुद्गलना परिणामस्वरूप कर्ममां पुद्गल ज व्यापक छे, जीव तेमां व्यापक नथी; जीव जो
पुद्गलना कार्यमां व्यापे तो तो ते अजीव थई जाय; जेम माटीनी अवस्थारूप घडामां (शरूआतमां, वच्चे के
अंतमां) सर्वत्र माटी ज व्यापक छे, कुंभार तेमां व्यापक नथी. जो कुंभार तेमां व्यापक होय तो कुंभार पोते
ज घडो थई जाय! जेम माटी पोते घडो थईने तेने करे छे, तेम कुंभार पोते कंई घडो थतो नथी, एटले ते
तेने करतो नथी. तेम रागादि परिणामोमां शुद्धनिश्चयथी