ज्ञानरूप थईने तेनो कर्ता थाय छे, पण जीव पोते रागरूप थई जतो नथी, तेथी ते रागनो कर्ता नथी. ज्ञानी
पोताना आत्माने उपयोगस्वरूप ज जाणे छे, रागस्वरूप नथी जाणता, तेथी तेमना द्रव्यमां–गुणमां ने
पर्यायमां सर्वत्र ज्ञाननुं ज व्यापकपणुं छे, रागनुं तेमां व्यापकपणुं नथी; अथवा तेमनी पर्यायनी आदिमां–
मध्यमां–अंतमां सर्वत्र उपयोग ज व्यापे छे, पण तेमां क्यांय राग व्यापतो नथी, राग तो बाह्य ज रहे छे.
माटे ज्ञानी धर्मात्माने ते राग साथे कर्ताकर्मपणुं नथी, मात्र ज्ञाताज्ञेयपणुं ज छे. जेम थांभला वगेरे
परद्रव्यने ज्ञानी पोताना ज्ञानथी भिन्न जाणे छे ते ज रीते रागादि परभावोने पण ज्ञानी पोताना ज्ञानथी
भिन्न जाणे छे.
उत्तर :– अरे भाई. अंतरनो महा वीतरागी पुरुषार्थ आमां आवे छे, अनंता परद्रव्योथी ने सर्वे
तेमां अज्ञानीने पुरुषार्थ देखाय छे, डुंगरा खोदे तेमां अज्ञानीने पुरुषार्थ भासे छे, पण ज्ञान रागथी जुदुं पडीने
पोते पोताना चिदानंद स्वभावमां ठर्युं तेमां रहेलो अपूर्व–अचिंत्य सम्यक पुरुषार्थ अज्ञानीने देखातो नथी.
भेदज्ञाननी अनुभूतिमां ज्ञानीने स्व–परनी स्पष्ट वहेंचणी थई जाय छे.
छे एवा संतो पासेथी ब्रह्मचर्यना पोषणनी ज वात मळे, त्यां कांई विषयकषायना पोषणनी वात न मळे;
तेम जेमणे ज्ञान अने रागनी स्पष्ट वहेंचणी करी नांखी छे ने ज्ञानस्वभावनो रंग लगाडयो छे–एवा ज्ञानी
धर्मात्मा पासे तो वीतरागी भेदज्ञानना पोषणनी ज वात मळे; रागना पोषणनी वात ज्ञानी पासे होय
नहि, ‘राग करतां करतां तने धर्मनो लाभ थशे’–एवी वात ज्ञानी पासे होय नहि. ज्ञानी तो एम कहे के
तारुं ज्ञान रागथी अत्यंत भिन्न स्वभाववाळुं छे, माटे तुं ज्ञानने अने रागने भिन्नभिन्न ओळखीने तारा
ज्ञान तरफ वळ ने रागथी जुदो पड; ज्ञाननी रुचि कर ने रागनी रुचि छोड.
तेमने कर्ताकर्मपणुं नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञानआनंदरूप जे निर्मळभावो छे ते ज आत्माना परिणाम छे, ने ते
निर्मळभावोना आदि–मध्य–अंतमां सर्वत्र आत्मा पोते ज अंतर्व्यापक छे. निर्मळपरिणामोमां राग
अंतर्व्यापक नथी, राग तो बाह्य छे. आत्मा ज निर्मळपरिणामोमां अंतरंगपणे व्यापक छे. माटे ज्ञानीने
पोताना निर्मळ परिणामो साथे ज कर्ताकर्मपणुं छे, रागादि साथे कर्ताकर्मपणुं नथी.