Atmadharma magazine - Ank 216
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : २१६
जीवने व्यापकपणुं नथी. जीव तो ज्ञानस्वरूप छे, ने ज्ञानपरिणाममां ज तेनुं व्यापकपणुं छे, जीव पोते
ज्ञानरूप थईने तेनो कर्ता थाय छे, पण जीव पोते रागरूप थई जतो नथी, तेथी ते रागनो कर्ता नथी. ज्ञानी
पोताना आत्माने उपयोगस्वरूप ज जाणे छे, रागस्वरूप नथी जाणता, तेथी तेमना द्रव्यमां–गुणमां ने
पर्यायमां सर्वत्र ज्ञाननुं ज व्यापकपणुं छे, रागनुं तेमां व्यापकपणुं नथी; अथवा तेमनी पर्यायनी आदिमां–
मध्यमां–अंतमां सर्वत्र उपयोग ज व्यापे छे, पण तेमां क्यांय राग व्यापतो नथी, राग तो बाह्य ज रहे छे.
माटे ज्ञानी धर्मात्माने ते राग साथे कर्ताकर्मपणुं नथी, मात्र ज्ञाताज्ञेयपणुं ज छे. जेम थांभला वगेरे
परद्रव्यने ज्ञानी पोताना ज्ञानथी भिन्न जाणे छे ते ज रीते रागादि परभावोने पण ज्ञानी पोताना ज्ञानथी
भिन्न जाणे छे.
प्रश्न :– आमां पुरुषार्थ शुं आव्यो?
उत्तर :– अरे भाई. अंतरनो महा वीतरागी पुरुषार्थ आमां आवे छे, अनंता परद्रव्योथी ने सर्वे
परभावोथी पोताना ज्ञानने जुदुं ने जुदुं ज राखवुं तेमां ज्ञाननो अनंतो पुरुषार्थ छे. बहारमां दोडधाम करे
तेमां अज्ञानीने पुरुषार्थ देखाय छे, डुंगरा खोदे तेमां अज्ञानीने पुरुषार्थ भासे छे, पण ज्ञान रागथी जुदुं पडीने
पोते पोताना चिदानंद स्वभावमां ठर्युं तेमां रहेलो अपूर्व–अचिंत्य सम्यक पुरुषार्थ अज्ञानीने देखातो नथी.
निर्मळ पर्यायनी अनुभूतिने आत्मा साथे अभेदता होवाथी ते अनुभूतिने निश्चयथी आत्मा ज
कह्यो; अने रागादि भावोने ते अनुभूतिथी भिन्नता होवाथी ते रागादिने निश्चयथी पुद्गलना ज कह्या.–आम
भेदज्ञाननी अनुभूतिमां ज्ञानीने स्व–परनी स्पष्ट वहेंचणी थई जाय छे.
जुओ, आ ज्ञानीधर्मात्मानी दुकाननो माल! ज्ञानी पासेथी तो ज्ञान अने रागनी भेळसेळ वगरनो
शुद्ध ज्ञानरूप चोकखो माल मळशे; ज्ञान अने रागनी भेळसेळ तेओ करता नथी. जेम ब्रह्मचर्यनो जेने रंग
छे एवा संतो पासेथी ब्रह्मचर्यना पोषणनी ज वात मळे, त्यां कांई विषयकषायना पोषणनी वात न मळे;
तेम जेमणे ज्ञान अने रागनी स्पष्ट वहेंचणी करी नांखी छे ने ज्ञानस्वभावनो रंग लगाडयो छे–एवा ज्ञानी
धर्मात्मा पासे तो वीतरागी भेदज्ञानना पोषणनी ज वात मळे; रागना पोषणनी वात ज्ञानी पासे होय
नहि, ‘राग करतां करतां तने धर्मनो लाभ थशे’–एवी वात ज्ञानी पासे होय नहि. ज्ञानी तो एम कहे के
तारुं ज्ञान रागथी अत्यंत भिन्न स्वभाववाळुं छे, माटे तुं ज्ञानने अने रागने भिन्नभिन्न ओळखीने तारा
ज्ञान तरफ वळ ने रागथी जुदो पड; ज्ञाननी रुचि कर ने रागनी रुचि छोड.
ज्ञानी अंतर्मुख थईने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–आनंद वगेरे निर्मळ पर्यायरूपे परिणम्या छे, ते निर्मळ
पर्यायने पोते तन्मयपणे जाणे छे, एटले ते निर्मळपर्यायो साथे तो तेमने कर्ताकर्मपणुं छे, परंतु परद्रव्य साथे
तेमने कर्ताकर्मपणुं नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञानआनंदरूप जे निर्मळभावो छे ते ज आत्माना परिणाम छे, ने ते
निर्मळभावोना आदि–मध्य–अंतमां सर्वत्र आत्मा पोते ज अंतर्व्यापक छे. निर्मळपरिणामोमां राग
अंतर्व्यापक नथी, राग तो बाह्य छे. आत्मा ज निर्मळपरिणामोमां अंतरंगपणे व्यापक छे. माटे ज्ञानीने
पोताना निर्मळ परिणामो साथे ज कर्ताकर्मपणुं छे, रागादि साथे कर्ताकर्मपणुं नथी.
अहा, आवा भेदज्ञाननी वार्ता ज्ञानीमुखेथी अपूर्व उल्लासभावे जे सांभळे छे तेने चैतन्यखजाना
खूली जाय छे. पद्मनंदीस्वामी कहे छे के–
तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता ।
निश्चितं स भवेत्भव्यो भाविनिर्वाण भाजनम् ।।
चैतन्यस्वरूप आत्मा प्रत्ये प्रीतिचित्तपूर्वक तेनी वार्ता पण जेणे सांभळी छे ते भव्यजीव निश्चयथी