Atmadharma magazine - Ank 216
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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आसो : २४८७ : १प :
भावि निर्वाणनुं भाजन छे.
वळी आदिनाथ भगवाननी स्तुतिमां तेओ कहे छे के हे भगवान! आपे केवळज्ञान प्रगट करीने
आपनां तो चैतन्य निधान खोल्यां, ने दिव्यध्वनिवडे चैतन्य स्वभाव दर्शावीने जगतना जीवोने माटे पण
आपे अचिंत्यचैतन्यनिधान खूल्लां मुकी दीधां. अहा, आ चैतन्यनिधान पासे चक्रवर्तीना निधानने पण
तूच्छ जाणीने कोण न छोडे? रागने अने रागनां फळोने तूच्छ जाणीने धर्मी जीवो अंतर्मुखपणे
चैतन्यनिधानने साधे छे. सम्यग्दर्शनादि समस्त निर्मळ भावनी आदिमां चैतन्यनुं ज अवलंबन छे, मध्यमां
पण चैतन्यनुं ज अवलंबन छे ने अंतमां पण चैतन्यनुं ज अवलंबन छे परंतु एम नथी के सम्यग्दर्शननी
शरूआतमां रागनुं अवलंबन होय! सम्यग्दर्शन थया पछी मध्यमां पण रागनुं अवलंबन नथी, ने पूर्णता
माटे पण रागनुं अवलंबन नथी. आदि–मध्य–के अंतमां क्यांय निर्मळ परिणामने रागादि साथे कांई लागतुं
वळगतुं नथी, तेनाथी भिन्नता ज छे. आ रीते निर्मळ परिणामरूपे परिणमता ज्ञानीने विकार साथे जरापण
कर्ताकर्मपणुं नथी.
राग कर्ता अने निर्मळ पर्याय तेनुं कार्य–एम नथी; तेम ज ज्ञानी कर्ता अने राग तेनुं कर्म–एम पण
नथी. ज्ञानीना जे निर्मळपरिणाम छे ते तो अंतरस्थित छे, अने राग तो बाह्यस्थित छे. एक ज काळे वर्तता
ज्ञान अने राग, तेमां ज्ञान तो अंतरस्थित छे ने राग तो बाह्यस्थित छे; ज्ञानी अंतरस्थित एवा पोताना
निर्मळपरिणामना कर्तापणे ज परिणमे छे, ने बाह्यस्थित एवा रागादिना कर्तापणे नहि पण ज्ञातापणे ज
परिणमे छे. ज्ञानपरिणाम तो अंतर्मुख स्वभावना आश्रये थया छे ने रागपरिणाम तो बहिर्मुखवलणथी–
पुद्गलना आश्रये थया छे. आत्माना आश्रये थया तेने ज आत्माना परिणाम कह्या, ने पुद्गलना आश्रये
थया तेने पुद्गलना ज परिणाम कही दीधा. रागनी उत्पत्ति आत्माना आश्रये थाय नहि, माटे राग ते
आत्मानुं कार्य नथी. आवा आत्माने जाणतो थको ज्ञानी पोताना निर्मळपरिणामने ज करे छे.–एना
परिणामनो प्रवाह चैतन्यस्वभाव तरफ वहे छे, राग तरफ तेनो प्रवाह वहेतो नथी. निर्मळपरिणामरूपे
परिणमेलो आत्मा रागमां तन्मयरूप परिणमतो नथी. जेम घडामां सर्वत्र माटी तन्मय छे, तेम कांई रागमां
ज्ञानीना परिणाम तन्मय नथी. ज्ञानीना परिणमनमां तो अध्यात्मरसनी रेलमछेल छे. चैतन्यना स्वच्छ
महेलमां रागरूप मेल केम आवे? ज्ञानी रागथी जुदो ने जुदो रहीने, पोतानी निर्मळपर्यायने तन्मयपणे
जाणे छे. द्रव्य–गुण अने तेना आश्रये उत्पन्न थती निर्मळपर्याय ए बधाने एकाकारपणे ज्ञानी जाणे छे, ने
रागने पोताथी भिन्नपणे जाणे छे. भेदज्ञानवडे झाटकी झाटकीने रागने चैतन्यथी अत्यंत भिन्न करी नांख्यो
छे.–केवो भिन्न? के जेवा परद्रव्यो भिन्न छे तेवो ज राग पण चैतन्यथी भिन्न छे.–आवा भेदज्ञान वगर
साधकपणुं थाय ज नहि. चैतन्यने अने रागने स्पष्ट भिन्न जाण्या वगर कोने साधवुं ने कोने छोडवुं–तेनो ज
निर्णय क्यांथी करशे? अने तेना निर्णय वगर साधकपणानो पुरुषार्थ उपडशे क्यांथी? भेदज्ञान वडे द्रढ
निर्णयना जोर वगर साधकपणानो चैतन्य तरफनो पुरुषार्थ ऊपडे ज नहि.
जे जीव भेदज्ञान करीने रागथी भिन्न निर्मळपरिणामरूपे परिणम्यो छे ते ज्ञानी जीव पोताना निर्मळ
सम्यग्दर्शनादि परिणामने निःशंक जाणे छे. सम्यग्दर्शन थाय ने खबर न पडे–एम बने नहि. धर्मी जीव
पोताना निर्मळपरिणामने तेमज रागादिने पण जाणे छे. परंतु ज्यारे रागने जाणवा तरफ उपयोग होय
त्यारे ते रागना कर्ता थता हशे!–एम शंका न करवी. रागने जाणवा छतां तेना ते कर्ता नथी, केमके राग साथे
उपयोगने एकमेक करता नथी, ने रागने उपयोगमां प्रवेशवा देता नथी.