जाणता थका तेना अकर्ता रहे छे ने निर्मळ परिणामने स्वज्ञेयपणे जाणता थका तेनी साथे कर्ताकर्मपणे प्रवर्ते
छे, रागने ज्यां शुद्ध स्वज्ञेयथी भिन्न जाण्यो त्यां राग तरफनुं पुरुषार्थनुं जोर तूटी गयुं, ने स्वज्ञेयसन्मुख
पुरुषार्थ वळ्यो.–जुओ, आ ज्ञानीने ओळखवानी रीत कहेवाय छे.
भेदज्ञान थाय अने निर्मळपरिणति न थाय–एम पण बने नहीं. भेदज्ञाननुं थवुं अने आस्रवोनुं छूटवुं
एटले के सम्यग्दर्शनादि निर्मळतानुं प्रगटवुं–तेनो एक ज काळ छे. ज्ञान आंधळुं नथी के पोताना निर्मळ
कार्यने न जाणे. ‘अमने श्रद्धा–ज्ञान थयां छे के नहि तेनी खबर नथी–पण चारित्र करवा मांडो’–एम कोई
कहे छे, पण भाई! तारा श्रद्धा–ज्ञाननुं हजी ठेकाणुं नथी, कई तरफ जवुं छे तेनी खबर नथी, मार्गने
नीहाळ्यो नथी, तो आंधळो–आंधळो तुं क्या मार्गे जईश? मोक्षमार्गने बदले अज्ञानथी बंधमार्गमां ज
चाल्यो जईश. सम्यग्दर्शन थाय त्यां पोताने खबर पडे के मार्ग खुली गयो...स्वभाव श्रद्धामां आव्यो–
अनुभवमां आव्यो, अने हवे आ स्वभावने ज मारे साधवानो छे, आ स्वभावमां ज मारे एकाग्र थवानुं
छे–एम द्रढ निश्चय थयो. आवा निश्चय वगर मार्गनी शरूआत पण थाय नहि.
भोगवटो छे. हर्ष–शोकनुं वेदन स्वभावमांथी नथी आवतुं माटे स्वभावद्रष्टिमां ज्ञानी तेना भोक्ता नथी;
निर्मळ परिणतिमां कर्मफळनो अभाव छे. निर्मळ परिणतिमां तो स्वभाविक आनंदनुं ज वेदन छे. जे
हर्षशोकनी लागणी छे ते धर्मी आत्मानुं कार्य नथी; धर्मीनो आत्मा तेनां द्रव्य गुण के निर्मळ पर्याय ते
विकारनुं कारण नथी. विकार साथे तेने कारण–कार्यपणानो अभाव छे, मात्र ज्ञेयज्ञायकपणुं ज छे.
स्वपणानो सम्यक् अभिप्राय थयो ने बीजे बधेथी परिणति छूटी पडीने स्वभाव तरफ वळी. अज्ञानी राग
अने ज्ञाननी एकत्वबुद्धिथी आखा आत्माने रागमय मानी रह्यो छे.
परिणतिनुं कारण मारो आत्मा ज छे. मारा आत्मा सिवाय जगतना तत्त्वो माराथी बाह्य छे, तेनो मारा
अंतरमां प्रवेश नथी, तो बहार रहीने मारामां तेओ शुं करे? द्रव्यगुण ने निर्मळपर्यायना पिंडरूप शुद्ध
आत्मा ते ज मारुं अंतरंगतत्त्व छे.–आम जे अनुभवे छे ते ज ज्ञानी छे, ते ज धर्मी छे.
निमित्त पण नथी. हवे ७९ मी गाथामां एम कहे छे के पुद्गलद्रव्यने जीव साथे कर्ताकर्मभाव नथी; एटले