आश्रये आवेली अशुद्धता पुद्गलनो ज स्वभाव छे, जीवना स्वभावमांथी ते अशुद्धता नथी आवी.
क्षयोपशम सम्यक्त्वमांथी क्षायिकसम्यक्त्व थयुं, त्यां ते क्षायिकसम्यक्त्वरूप कार्य ते जीवनुं प्राप्य कर्म छे, ते
क्षयोपशमभावनुं प्राप्य कर्म नथी. ए रीते बधा गुणोनी पर्यायोमां समजवुं. पूर्वनी निर्मळपर्याय पण बीजी
निर्मळपर्यायने प्राप्त करती नथी, तोपछी विकार के निमित्त ते निर्मळपर्यायने प्राप्त करे ए वात तो क्यां
रही? शुद्धपर्यायने अशुद्धता साथे के परद्रव्य साथे कर्ताकर्मपणुं नथी, शुद्धपर्यायने द्रव्यनी साथे ज कर्ताकर्मपणुं
छे. द्रव्य साथे पर्यायनुं एकत्व थतां निर्मळकार्य थयुं छे. द्रव्य ज पोतानी शक्तिथी निर्मळ पर्यायनुं कर्ता थाय
छे. त्यां तेनां निर्मळ कार्यमां विकारनो ने कर्म वगेरेनो तो अभाव ज छे. अज्ञानभावे तो जीव ज विकारनो
कर्ता छे, परंतु अहीं तो ज्ञानीनी ओळखाणनी वात छे; भेदज्ञानवडे ज्यां अज्ञाननो नाश थयो त्यां अज्ञान
जनित कर्ताकर्मपणुं पण ज्ञानीने छूटी गयुं. ते ज्ञानीने परद्रव्य साथे कर्ताकर्मपणुं जरा पण नथी. सम्यग्दर्शन–
ज्ञानादि निर्मळ परिणामोना ज कर्तापणे प्रकाशतो थको ज्ञानी शोभे छे.
नथी तेथी ते पण ज्ञानथी भिन्न ज छे. आ रीते स्पष्ट भिन्नपणुं होवाथी ज्ञानने अने परने जरापण
कर्ताकर्मपणुं नथी. ज्यां आवी भेदज्ञानज्योति जागी त्यां अज्ञानजनित कर्ताकर्मपणाने ते चारे तरफथी
अत्यंत नष्ट करी नाखे छे. ज्यां सुधी भेदज्ञान ज्योति प्रगटी नथी त्यां सुधी ज भ्रमने लीधे जीव–पुद्गलनुं
कर्ताकर्मपणुं भासे छे, ने ज्ञान तथा राग वच्चे पण कर्ताकर्मपणुं अज्ञानीने भ्रमथी ज भासे छे. ज्ञानभावमां
ते कर्ताकर्म प्रवृत्तिनो अत्यंत अभाव छे, ज्ञानस्वभावी भगवान पोताना ज्ञानमय कार्यथी शोभे छे. आनुं
नाम धर्म छे ने आ मोक्षनो मार्ग छे.