
दशा! सामान्य लोकोने तो जराक जाणपणुं थाय त्यां जीरववुं मुश्केल पडे, अहीं भगवानने तो अवधि मन:–
पर्ययज्ञान छे, एक वर्ष उपरांतना उपवास छे छतां ते ज्ञाननो उपयोग मुकवानी वृत्ति ऊठती नथी, अरे,
अमे अमारो उपयोग तो चैतन्यना आनंदमां मुकीए के बहारमां! आहार न मळे तेथी खेद पण थतो नथी,
बीजी क्षणे आहारनी वृत्ति तोडीने निर्विकल्प आनंदनुं भोजन करे छे; छठ्ठा–सातमा गुणस्थाननी दशामां
झूल्या करे छे.
(–जे तेमना पुत्रो ज हता–तेमने) घणी ज भक्तिथी विधिपूर्वक आहारदान आप्युं हतुं, अने त्यारथी
आठभव सुधी साथे ने साथे रह्या हता. भगवान ऋषभमुनिराज ज्यारे हस्तिनापुरमां श्रेयांसराजाने
आंगणे पधारवाना हता त्यारे आगली राते–एटले के “वैशाख सुद बीज” नी रातना पाछला भागमां
श्रेयांस राजाने महा मंगलसूचक स्वप्नो आव्यां के मारे आंगणे कल्पवृक्ष फळ्युं छे. देवो आवीने वाजां वगाडे
छे.–ईत्यादि मंगल स्वप्नो उपरथी, कल्पवृक्ष समान कोई महान पुरुष मारे आंगणे आज पधारशे–एम
जाणीने तेमने घणो आनंद थयो. ते वखते शेरडीना ताजा रसना घडा भरीभरीने लोको राजाने त्यां भेटरूपे
मुकी गया हता.
परमात्मा उपरथी ऊतर्या! एमने नीहाळतां ज श्रेयांसकुमारना रोमरोम हर्षथी अने भक्तिथी उल्लसी गया;
एमने जोतां ज जातिस्मरण ज्ञान थयुं अने पूर्वे जे विधिथी मुनिओने आहारदान करेलुं ते विधि जाणवामां
आवी गई. तेथी विधिपूर्वक भगवानने आहार माटे पडगाहन कर्युं. अहा, मोक्षनुं कल्पवृक्ष मारा आंगणे
आव्युं...साक्षात्–मोक्षमार्ग मारा आंगणे आव्यो..धन्य भाग्य! धन्य घडी! एम परम भक्तिथी अने परम
हर्षथी नवधा भक्तिपूर्वक शेरडीना रसनुं आहारदान कर्युं. देवोए पण ‘अहो दानं..अहो दानं’ करीने तेनी
प्रशंसा करी अने पंच आश्चर्य प्रगट थया. भरतचक्रवर्तीए पण त्यां आवीने श्रेयांसकुमारनुं बहुमान कर्युं.
श्रेयांसकुमारने पण आनंद–आह्लाद अने प्रमोद थयो के अहो! आ चोवीसीमां तीर्थंकर–मुनिराजने
आहारदाननो पहेलवहेलो प्रसंग अमारा आंगणे बन्यो; साधकदशारूप कल्पवृक्ष अमारा आंगणे आव्युं;
अमारा जीवननी आज सफळ घडी छे. आ रीते, सम्यग्दर्शन–सहित विधिपूर्वक श्रेयांसकुमारे आहारदान कर्युं
त्यारथी भरतक्षेत्रमां दानतीर्थनी प्रवृत्ति शरू थई. ए रीते श्रेयांसकुमार आ चोवीसीमां दानतीर्थना प्रवर्तक
थया, अने पछी तेओ भगवानना गणधर थईने आ ज भवे मोक्ष पाम्या. अहा, आहार देनार अने लेनार
बंने चरमशरीरी! असंख्य वर्षना आंतरे आहारदाननो आ प्रसंग भरतक्षेत्रमां बन्यो. चारित्रधर्म अने
दानधर्मना स्तंभ त्यारथी रोपाया. आ प्रमाणे मुनिधर्म अने श्रावकधर्मना स्तंभरूप महापुरुषोने याद करीने
आ अधिकार शरू करे छे.
मुक्तेः पन्था स एव स्यात्प्रमाणपरिनिष्ठितः।। २।।
नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञान चारित्ररूप मोक्षमार्ग पूर्णपणे तो मुनिवरोने होय छे, अने गृहस्थ–श्रावकोने