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श्री आदिनाथ जिनेन्द्रने अने दानतीर्थना प्रवर्तक श्री श्रेयांसराजाने याद करीने कहे छे के तेमना संबंधथी आ
भरतक्षेत्रमां धर्मनी स्थिति थई:–
एतदन्योन्यसंबंधे धर्म स्थितिरभूदिह।।
महात्माओ व्रततीर्थ अने दानतीर्थने प्रवर्ताववामां
आदिपुरुषो छे, तेमना संबंधथी ज आ भरतक्षेत्रमां
मुनिधर्मनी अने श्रावकधर्मनी स्थिति थई छे. व्रततीर्थ
एटले सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रसहित मुनिपणुं, ते आ
चोवीसीमां भरतक्षेत्रे असंख्य–अबजो वर्षना आंतरे
पहेलवहेलुं ऋषभनाथ भगवाने धारण कर्युं एटले तेओ
व्रततीर्थ चलावनारा आदिपुरुष छे; अने दानतीर्थं एटले
विधिपूर्वक मुनिराजने आहारदान देवुं ते श्रावकनुं एक
मुख्य कर्तव्य छे; श्री श्रेयांसराजा पहेलवहेलुं आहारदान
दईने आ चोवीसीमां दानतीर्थना प्रवर्तक आदिपुरुष
थया. तेओ बंने चरमशरीरीपणे आ ज भवमां मोक्ष
पाम्या. तेमना द्वारा भरतक्षेत्रमां धर्मनी स्थिति थई
एम कहीने मंगलाचरणमां ते महापुरुषोने याद कर्या छे.
नीलांजसा नामनी देवी नृत्य करतां करतां ज मृत्यु
पामी, ते क्षणभंगुरता देखीने भगवान संसारथी विरक्त
थया, अने बार वैराग्य भावना भावीने स्वयं दीक्षित
थई, मुनि थया; अने छ मास सुधी आत्माना ज्ञान–
ध्यानमां एवा लीन रह्या के आहारनी वृत्ति पण न
ऊठी. छ महिना बाद ज्यारे आहारनी वृत्ति ऊठी त्यारे नगरीमां पधार्या, परंतु मुनिराजने आहारदान कई
रीते देवुं तेनी लोकोने खबर न हती, आदिनाथ भगवान नगरीमां शा माटे पधार्या छे तेनी पण लोकोने
खबर न हती, एटले कोई तो हीरा–माणेकना थाळ लईने भेट धरवा लाग्या, कोई वस्त्रादि लईने भेट
धरवा आव्या. कोई भोजननो थाळ लईने आव्या. पण आहारदाननी विधि कोई जाणतुं न हतुं. एटले
भगवान श्री ऋषभमुनिराज आहारनी वृत्ति तोडीने पाछा वनमां चाल्या जाय छे ने चैतन्यध्यानमां लीन
थाय छे. अहा, आहार न मळे के मळे तेमां मुनिओने समभाव छे, ए तो चैतन्यने साधवा माटे नीकळ्या
छे. छ महिना उपरांत काळ वीती गयो छतां भगवान अवधिज्ञान के मनःपर्ययज्ञाननो उपयोग मुक्ता नथी,
ए तो महा धीर अने गंभीर छे, ज्ञानना उपयोगने ज्यां त्यां भमावता नथी. साधक जीवो पोताना
स्वरूपने साधवानी लगनीमां छे, तेओ उपयोगने ज्यां त्यां भमावता नथी. “लावने, वनमां बेठा बेठा
अवधिज्ञाननो उपयोग मूकीने जोई लउं के आज आहारनो योग बनशे के नहि! एटले मफतनो आंटो न
थाय’–आवी वृत्ति भगवानने ऊठती नथी. जुओ खरां आ