Atmadharma magazine - Ank 217
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४८८ : ११ :
दूर छे ने संसार नजीक छे...सम्यग्दर्शन वगेरेनी आराधना विना बीजुं गमे तेटलुं करे तो पण ते संसारमांने
संसारमां ज रहेशे. तेनो एक पण भव घटशे नहि. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रना मार्गे चाल्या वगर
भववनथी छूटवानो बीजो कोई मार्ग नथी.
सम्यग्दर्शनमां, सम्यग्ज्ञानमां के सम्यक्चारित्रमां ए त्रणेमां आत्मस्वभाव नजीक छे; स्वभावनी
समीप जईने रत्नत्रयनी आराधना वडे मोक्षमार्गमां गमन जेओ नथी करता अने रागथी धर्म मानीने
रागने ज जेओ समीप करे छे एवा जीवोने मोक्ष घणो दूर छे ने संसार घणो दीर्घ छे. स्वभावथी दूर अने
रागनी समीप वर्तता ते जीवोने मोक्षनी झांखी पण थती नथी तेथी मोक्ष तेमने घणो दूर छे. अने जे जीवो
रागने अने स्वभावने भिन्न भिन्न जाणे छे, रागने मोक्षमार्ग मानता नथी, ने चिदानंद स्वभावनी
समीप जईने–अंतर्मुख थईने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्गमां गमन करे छे तेमने मोक्ष अत्यंत
नजीक छे अने संसारनो अंत आववानी तैयारी छे, सम्यग्द्रष्टि गृहस्थ पण मोक्षमार्गे चालनारो छे अने
तेने मोक्ष नजीक वर्ते छे. आ रीते रत्नत्रय ते ज मोक्षनो मार्ग छे, माटे रत्नत्रयमार्गनी आराधनानो
उपदेश छे.
।। ।।
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रय ते धर्म छे एम धर्मनुं सामान्य स्वरूप कह्युं; हवे ते रत्नत्रय
धर्मनी आराधना पूर्णपणे मुनिने होय छे अने अंशपणे गृहस्थने होय छे एम बताववा तेना बे भेद कहे
छे:–
सम्पूर्णदेशभेदाभ्यां स च धर्मो द्विधा भवेत्।
आद्यो भेदे च निर्ग्रन्था द्वितीये गृहिणः स्थिताः।। ४।।
जे रत्नत्रयरूप धर्म छे ते सर्वदेशरूप अने एकदेशरूप एम बे प्रकारनो छे; तेमां सम्पूर्ण रत्नत्रयधर्मनुं
पालन तो निर्ग्रंथ मुनिओने होय छे, अने एकदेशरूप रत्नत्रयधर्मनुं पालन गृहस्थ–श्रावकोने होय छे.
तेमांथी एकदेश रत्नत्रयनुं पालन करनार धर्मात्मा–श्रावक केवो होय तेनुं वर्णन आ “उपासक–संस्कार”
नामना अधिकारमां करशे.
अहो, सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान उपरांत चारित्रदशारूप मुनिपणुं होय ते तो धन्यदशा छे, ए तो
पंच परमेष्ठी पदमां समाय छे, अने सम्यग्दर्शन सहित श्रावकने पण धन्य ने प्रशंसनीय कह्यो छे. मुनिने
माटे के श्रावकने माटे धर्मनुं स्वरूप तो एक ज प्रकारनुं छे. धर्मना कांई बे प्रकार नथी, पण तेनी
आराधनामां तीव्रता अने मंदतानी अपेक्षाए मुनिपणुं अने श्रावकपणुं एवा बे भेद छे. जेने रत्नत्रयरूप
धर्म सर्वदेश छे ते तो मुनि छे, अने जेने एकदेश छे ते श्रावक छे. मुनिने सम्यग्दर्शन–ज्ञान उपरांत
चारित्रदशानो वीतरागभाव घणो प्रगट्यो छे अने श्रावकने तेटलो वीतरागभाव प्रगट्यो नथी, ए रीते
चारित्र अपेक्षाए बंनेमां फेर छे. पण तेथी एम न मानवुं के श्रावकने जे राग छे ते धर्म छे. श्रावकने पण जे
राग छे ते धर्म नथी, पण सम्यक्श्रद्धा–सम्यग्ज्ञान तेमज जेटले अंशे वीतरागभाव छे ते ज धर्म छे, जेवुं
सम्यग्दर्शन मुनिओने होय छे तेवुं ज सम्यग्दर्शन श्रावकोने पण होय छे, सम्यग्दर्शनधर्ममां तेमने फेर नथी.
गृहस्थने वेपार–धंधो, घरबार, स्त्री वगेरेनो संयोग तथा ते प्रकारनो राग होय छतां धर्मीने अंतरमां तेनी
रुचि नथी, अंतरमां संयोगथी भिन्न ने रागथी पण भिन्न चैतन्यद्रव्यनुं भान वर्ते छे, तो ते मोक्षमार्गमां
स्थित छे. माटे, ‘गृहस्थने धर्म केम थाय? त्यागी थया पछी ज धर्म थाय’–एवी शंका न करवी. गृहस्थ होय
माटे अधर्मी ज होय–एम नथी, गृहस्थपणामांय चैतन्यनुं भान करनारा एकावतारी धर्मात्मा होय छे. वळी,
घरबार छोडीने त्यागी थई गयो माटे ते धर्मी थई गयो–एम पण नथी; जेना अंतरमां चैतन्यनुं भान नथी
अने रागमां धर्म माने छे ते बहारमां त्यागी थईने व्रतादि पाळतो होय तो पण धर्मी नथी पण अधर्मी