
ज छे. माटे गृहस्थोए पण सम्यग्दर्शनादि धर्मनुं वास्तविक स्वरूप जाणीने तेनी आराधना करवी जोईए.
मिथ्याद्रष्टि–मुनि करतां सम्यग्द्रष्टि–गृहस्थ श्रेष्ठ छे. पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक (–भले तिर्यंच होय तो पण)
सर्वार्थसिद्धिना ईन्द्रो करतां ऊंची दशावाळो छे, ईन्द्र करतां पण तेनो आत्मवैभव ने आत्मशुद्धि वधारे छे.
सर्वार्थसिद्धिना देवने चोथुं गुणस्थान छे ने आ श्रावकने पांचमुं छे, तेथी देव करतां पण ते पूज्य छे. पांचमा
गुणस्थाने परिणामनी एटली शुद्धता थई गई छे के अपजश, अनादेय अने दुर्भाग्य–ए त्रण प्रकृतिनो तेने
उदय नथी.–शुं बहारमां कोई तेनी निंदा–अपजश के अनादर नहि करतुं होय? बहारमां निंदा करे तो भले
करो, पण ते तो पोताना आत्मानी प्रशंसा–आराधना ज करी रह्यो छे, तेथी तेने अपजश वगेरे प्रकृतिनो
उदय छे ज नहीं. जुओ, आ धर्मात्मा श्रावकनी दशा!
सम्यग्द्रष्टि–श्रावकने पण चोथा–पांचमा गुणस्थाने देव–गुरुनी उपासना, शास्त्रस्वाध्याय, संयम, तप
अने दान वगेरेना शुभभावो दिनेदिने होय छे. मुनि अने श्रावक बंनेने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान
तो छे, तेमां तो तेमने समानता छे पण चारित्रमां सर्वदेश अने एकदेश–एवो भेद छे. सम्यग्दर्शनमां
कांई एकदेश अने सर्वदेश एवा प्रकार पडता नथी, जेवी गणधरदेवनी प्रतीत छे तेवी ज चोथा
गुणस्थानवर्ती गृहस्थनी प्रतीत छे; सम्यग्द्रष्टितिर्यंचने अने सिद्धभगवानने सम्यग्दर्शननी प्रतीतिमां
फेर नथी, एक ज ध्येय बंनेए प्रतीतमां लीधुं छे. आवुं सम्यग्दर्शन ते धर्मनो मूळ पायो छे. मुनि हो के
श्रावक हो,–बंनेने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान तो होय ज. माटे सौथी पहेलां सम्यग्दर्शननी आराधना
करवानो प्रधान उपदेश छे.
जेने सम्यग्दर्शन न होय तेने सौथी पहेलां सम्यग्दर्शननो उपदेश आपवो योग्य छे. जे जीव सम्यग्द्रष्टि तो
होय अने चडता परिणामथी आगळ वधवा मांगतो होय तो तेने माटे पहेलां मुनिधर्मनो उपदेश देवानुं
पुरुषार्थसिद्धिउपायमां कह्युं छे, अने जो तेनी शक्ति मंद होय तो श्रावकधर्मनो (एकदेशव्रतनो) उपदेश
आपवो–एम त्यां कह्युं छे. परंतु जेने हजी श्रद्धा–ज्ञाननुं ठेकाणुं नथी एवा मिथ्याद्रष्टिने पण सीधुं मुनिपणुं
आपी देवुं–एम कांई नथी कह्युं. पहेलांमां पहेली आराधना सम्यग्दर्शननी छे, सम्यग्दर्शन पछी पोताना
परिणामनी शक्ति जोईने मुनिपणुं के श्रावकपणुं ल्ये. जैनशासननी परिपाटी एवी छे के पहेलां मिथ्यात्वनुं
मोटुं पाप छूटे छे ने पछी अव्रतादिनुं पाप छूटे छे. एटले सम्यग्दर्शन थया पछी ज मुनिपणुं के श्रावकपणुं
होय छे.
तेनैतेऽपि च गण्यन्ते गृहस्था धर्महेतवः।। ५।।
गणवामां