
आव्या छे. धर्मात्मा श्रावको पोताना सम्यग्दर्शनादि धर्मने जाळवीने, मुनिओने आहारदान वगेरे द्वारा
रत्नत्रयधर्मने टकाववानुं साधन थाय छे तेथी उपचारथी तेने मुनिधर्म टकवानो हेतु पण कहेवाय छे.
शास्त्रकार तो एम पण कहे के, जे शरीरमां रहीने मुनिओ रत्नत्रयधर्मनुं साधन करे छे ते शरीरनी
स्थिति आहारथी टके छे, माटे जेणे मुनिओने आहारदान दीधुं तेणे रत्नत्रयधर्मने ज टकाव्यो. अने
आहारदान देनार श्रावकने पण मोक्षमार्गनी अनुमोदनानो भाव छे के अहा! आ मुनिवरो मोक्षमार्गने
साधी रह्या छे, आवो मोक्षमार्ग जगतमां सदाय टकी रहो. आथी ते श्रावके मोक्षमार्गने टकाव्यो–एम
कह्युं. मोक्षमार्ग तो शुद्ध आत्माना आश्रये ज टके छे, ते कांई देह के आहार वगेरे निमित्तना आश्रये नथी
टकतो. श्रावकने पण तेनुं भान छे. पण श्रावकना आचार बताववा उपचारथी एम पण कहेवाय के जेणे
मुनिने आहार आप्यो तेणे मोक्षमार्ग टकावी राख्यो. बंने पडखा बराबर लक्षमां राखीने जेम छे तेम
समजवुं जोईए.
पछी हुं जमुं. अरे, आ पेटमां कोळिया पडे तेना करतां कोई मुनिराज–धर्मात्माना पेटमां कोळियो जाय तो
मारो अवतार सफळ छे! हुं पोते ज्यारे मुनि थईने करपात्री बनुं ते धन्य अवसरनी तो शी वात! परंतु
मुनि थया पहेलां बीजा मुनिवरोना हाथमां हुं भक्तिथी आहारदान करुं तो मारा हाथनी सफळता छे.– आम
रोजरोज श्रावक मुनिओने याद करीने भावना भावे. अहीं मुख्यपणे मुनिओने आहारदाननी वात करी, ए
रीते शास्त्रदान वगेरेनो तेमज बीजा साधर्मी–धर्मात्मा श्रावको प्रत्ये पण वात्सल्यपूर्वक आहारदान वगेरेनो
भाव आवे छे. श्रावक थया पहेलां अने सम्यग्दर्शन थया पहेलां धर्मना जिज्ञासुने पण आवा प्रकारना भावो
आवे छे एम समजी लेवुं.
धर्मश्च दानमित्येषां श्रावका मूलकारणम्।।
श्रावको तेमने धर्मसाधनमां स्थित करे छे; ए रीते वीतरागी देव–गुरुना भक्त श्रावको पण निमित्त
तरीके धर्मनुं कारण छे. पोतामां पण ते श्रावक सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननी आराधना वडे धर्मनी
स्थिति करे छे, अने निमित्त तरीके बहारमां पण धर्मनी स्थितिनुं ते कारण थाय छे; माटे एवा श्रावक
पण प्रशंसनीय छे.
जिनमंदिर होय छे, ज्यां जिनमंदिरो होय छे त्यां मुनिवरो निवास करे छे अने त्यां धर्मनी प्रवृत्ति रहे छे;
तेथी प्राणीओना पापसंचयनो नाश थाय छे अने स्वर्ग–मोक्षना सुखोनी प्राप्ति थाय छे; माटे गुणवान
मनुष्यो वडे धर्मात्मा–श्रावको अवश्य आदरणीय छे, संमत छे, सज्जनोए अवश्य तेमनो आदरसत्कार
करवो जोईए.