
भेदज्ञान ते ज धर्मलब्धिनो अवसर छे.
पाछो वळी जाय छे, एटले भेदज्ञानथी ज
बंधन अटकी जाय छे ने धर्मनी प्राप्ति थाय
छे. ए वात पू. गुरुदेवे आ प्रवचनमां सरस
रीते घणी स्पष्ट समजावी छे.
जीव चैतन्यस्वरूप छे, ते चैतन्यस्वरूपमां राग नथी, रागने करवानो चैतन्यनो स्वभाव नथी. पण
ज पोतानुं कर्म बनावे छे. हुं– चैतन्यस्वरूप आत्मा कर्ता, अने रागादिभावो मारुं कर्म, एवी अज्ञानभावनी
प्रवृत्ति अज्ञानीने अनादिथी चाली आवे छे ते ज बंधननुं कारण छे. चैतन्यतत्त्व तो अंतर्मुख छे अने
रागादिभावो तो बहिमुर्ख छे, तेमने एकपणुं नथी. ज्यांसुधी चैतन्यनी अने रागनी भिन्नताने न जाणे त्यां
सुधी भेदज्ञानरूप बोधिबीज प्रगटे नहि. हुं तो चैतन्य छुं ने रागादिभावो तो चैतन्यथी भिन्न छे, ज्ञानमांथी
रागनी उत्पत्ति नथी, ने रागमांथी ज्ञाननी उत्पत्ति नथी. आवुं भेदज्ञान करे त्यारे जीवनी परिणति रागथी
खसीने अंतरमां चैतन्यस्वभाव तरफ वळे छे, ने त्यारे सम्यग्दर्शनादि धर्मनी अपूर्व शरूआत थाय छे.
छे, ने स्वभावमां अंतर्मुख थतां पांचे लब्धि एक साथे आवी मळे छे. स्वभावमां अंतर्मुख थाय ने
धर्मलब्धिनो काळ न होय एम बने नहि.
छे.–आवुं अंतरनुं भेदज्ञान ते कोई शुभराग वडे थतुं नथी पण चैतन्यना ज अवलंबने थाय छे. भेदज्ञान ते
अंतरनी चीज छे, ए कोई बहारना भणतरनी के शुभरागनी चीज नथी.
रागथी छूटो पाडीने चैतन्यमां वाळ्यो ते जीव भेदज्ञानी छे; शास्त्रोए जेवी