कारतक: २४८८ : १प :
ज्ञान अने रागनी भिन्नता बतावी छे तेवी परिणतिरूपे ते धर्मात्मानुं साक्षात् परिणमन थयुं छे.
रागथी तो अत्यंत भिन्नता करवानी छे, तो ते भिन्नता रागना अवलंबने केम थाय? रागनो
जेमां अभाव छे एवा चैतन्यना अवलंबने ज रागनुं ने ज्ञाननुं भेदज्ञान थाय छे. जुओ, आमां
निश्चय–व्यवहारनुं भेदज्ञान पण आवी गयुं. निश्चय तो स्वाश्रित–चैतन्यस्वभाव छे, ते स्वभावना
आश्रये भेदज्ञान थाय छे, ने व्यवहार तो पराश्रित रागभाव छे, तेना आश्रये भेदज्ञान थतुं नथी,
तेना आश्रये तो राग ज थाय छे. निश्चय श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र तो अंतर्मुख परिणति छे, ने व्यवहार
श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रमां तो बहिर्मुख रागपरिणति छे. जे जीव आवुं भेदज्ञान करे छे ते ज जीव राग
साथेनी कर्ताकर्मनी अज्ञानप्रवृत्तिथी छूटे छे. भेदज्ञान थतांवेंत ज ते पोताना चैतन्यस्वभाव साथे
एकताथी अने रागादि साथे भिन्नताथी सम्यग्दर्शनादि निर्मळकार्यरूपे परिणमे छे, ने बंधनथी छूटे छे.
आ रीते भेदज्ञानथी ज बंधननो निरोध थाय छे.
हवे पूछे छे के ज्ञानमात्रथी ज बंधन कई रीते अटके छे? तेनो उत्तर आचार्यदेव ७२मी गाथामां
समजावे छे–
अशुचिपणुं विपरीतता ए आस्रवोनां जाणीने,
वळी जाणीने दुःखकारणो, एथी निवर्तन जीव करे.
सम्मेदशिखरजीनी यात्राए गया त्यारे मधुवनमां आ गाथा वंचाणी हती. आत्मानो चैतन्यस्वभाव
पवित्र छे, सुखरूप छे, अने रागादि आस्रवो चैतन्यरहित छे, अशुचिरूप छे तथा दुःख उपजावनारां छे. आ
रीते आस्रवोनुं चैतन्यस्वभावथी विपरीतपणुं जाणीने भेदज्ञानी जीव तेनाथी पाछो वळे छे, आ रीते
भेदज्ञानथी बंधन अटकी जाय छे.
आत्मा अबंधस्वभावी छे, तेनो चैतन्यस्वभाव छे ते बंधभावथी रहित छे. ज्यां आवा अबंध
चैतन्यस्वभावनुं भान थयुं त्यां बंधनथी आत्मा छूटो पडी जाय छे. अहो, आ भेदज्ञाननो महिमा छे, के
भेदज्ञान थया पछी आत्मा बंधभावथी जुदो ज रहे छे. आस्रवो तो पाणीनी सेवाळ जेवा मलिनपणे
अनुभवाय छे, ने भगवान आत्मा तो सदाय निर्मळ–अति निर्मळ चैतन्यस्वभावपणे अनुभवाय छे तेथी ते
पवित्र छे. आ रीते अपवित्र एवा आस्रवो अने पवित्र एवो चैतन्य भगवान, तेमने भिन्नता छे. जुओ,
शुभराग थाय ते पण चैतन्यपणे नथी अनुभवातो परंतु मलिन आस्रवपणे ज अनुभवाय छे, तो ते रागथी
निर्मळ धर्मनी प्राप्ति केम थाय? अने शुभराग करतां करतां धर्म थशे एम जे माने ते रागथी पाछो केम वळे?
अने ते रागथी चैतन्यनी भिन्नता केम माने? एवा जीवने आस्रवनो निरोध थाय नहीं. भेदज्ञान वडे
आत्माने रागथी भिन्न जाणे तो रागथी पाछो वळी–जुदो पडी चैतन्यस्वभाव तरफ वळे, एटले तेने रागादि
आस्रवो अटकी जाय छे. भेदज्ञान एटले अंतर्मुख थयेलुं ज्ञान, तेनो स्वभाव ज क्रोधादिथी छूटा पडवानो छे.
ज्ञाननो उपयोग स्वभाव तरफ वळीने एकता करे अने रागादिथी भिन्नता न करे–एम बने नहि; एटले
आत्मा तरफ वळेला भेदज्ञानने आस्रवोथी निवृत्तिनी साथे अविनाभावीपणुं छे.
अहीं आचार्यदेव अलौकिक रीते आत्मा अने आस्रवोनुं स्पष्ट भेदज्ञान करावे छे. आत्माने अने
आस्रवोने विरुद्ध स्वभावपणुं छे तेथी तेमने एकता नथी पण भिन्नता छे. आत्मा तो जागृत
चैतन्यस्वभावी स्वपर प्रकाशक छे, ‘हुं चैतन्य छुं ने आ रागादि आस्रवो छे’ एम स्व–पर बंनेने जाणवानो
चैतन्यनो स्वभाव छे. अने आस्रवो (रागादिभावो–व्यवहारनो अवलंबनरूप भावो–) ते तो विपरीत छे
एटले के जड स्वभाववाळा छे, तेओ स्वने के परने जाणवाना स्वभाववाळा नथी माटे खरेखर जड छे, तेथी
तेओ चैतन्यथी अन्यस्वभाववाळा छे, ते आस्रवो पोते पोताने जाणता नथी पण पोताथी अन्य एवा
चैतन्य वडे ज ते जणावा योग्य छे. जुओ, रागथी जुदो पडे तो ज रागनुं खरुं ज्ञान थाय छे. रागमां एकता
करे तेने रागनुं पण ज्ञान थतुं नथी. चैतन्य छे ते रागथी अन्य छे; रागमां चैतन्यथी विपरीत स्वभावपणुं
छे एटले ते चैतन्यथी अन्य छे. अने चैतन्यस्वभावी आत्मा तो स्वयं–रागना अवलंबन वगर ज स्व–
परने जाणनारो चेतक छे, ते चैतन्यथी अनन्य छे आ