
रीते आत्माने अने आस्रवोने भिन्नस्वभावपणुं छे–एवा भेदज्ञानथी आत्माने बंधन अटकी जाय छे. अहा,
द्रष्टि–अपेक्षाए तो समकितीने मुक्त कह्यो छे. समकितीनी द्रष्टिमां बंधरहित शुद्ध आत्मा ज छे, तेथी
द्रष्टिअपेक्षाए तेने बंधन छे ज नहीं. जेम अंधकारने अने प्रकाशने भिन्नता छे, तेम अंधकार जेवा
आस्रवोने अने प्रकाश जेवा चैतन्यने अत्यंत भिन्नता छे. जेटलो पराश्रित व्यवहार छे ते बधोय आस्रवोमां
जाय छे, ते चैतन्यस्वभावथी भिन्न छे; ने जे स्वाश्रित निश्चय छे–स्वाश्रये थयेली निर्मळ पर्याय छे–तेने
चैतन्यस्वभाव साथे एकता छे. आवा भेदज्ञानथी ज्यां चैतन्य साथे एकतारूप ने रागादिथी भिन्नतारूप
परिणमन थयुं त्यां हवे बंधन शेमां रहे? बंधन तो ज्यां आस्रवभाव होय त्यां थाय, पण ज्यां आस्रवोथी
छूटीने चैतन्यस्वभावमां वळ्यो त्यां बंधन थतुं नथी.
आस्रवोथी भिन्न चैतन्यने ते जाणतो नथी. अहीं आचार्यभगवान घणा घणा प्रकारे भेदज्ञान करावे छे.
पहेलां एम कह्युं के आस्रवो अशुचि–अपवित्र छे, ने भगवान आत्मा पवित्र छे माटे बंने भिन्न छे; पछी
एम कह्युं के आस्रवो जडस्वभावी छे ने भगवान आत्मा चैतन्यस्वभावी छे. तेथी ते बंनेने भिन्नता छे;
हवे एम कहे छे के आस्रवो तो दुःखनां कारण छे ने भगवान आत्मा सुखस्वरूप छे–तेथी तेमने अत्यंत
भिन्नता छे.
परिणति ज्यां अंतरमां वळी त्यां पवित्रता प्रगटी, स्व–पर प्रकाशपणुं प्रगट्युं अने अतीन्द्रियसुख
प्रगट्युं, एटले दुःखनुं कारण न रह्युं. आ भेदज्ञाननुं कार्य छे. अज्ञानी कहे छे के शुभराग ते धर्मनुं
साधन थाय एटले के आस्रवो सुखनुं कारण थाय; अहीं तो आचार्यदेव कहे छे के आस्रवो दुःखनां ज
कारण छे. जे दुःखनुं कारण होय ते सुखनुं कारण केम थाय? न ज थाय. चैतन्यमूर्ति आत्मा शांत–
निराकूळ छे तेथी ते कदी दुःखनुं कारण थतो नथी; चैतन्य तरफ वळे ने दुःख रहे एम बने नहि, केम के
चैतन्यभगवान दुःखनुं अकारण छे. आत्मा कारण थईने रागकार्यने उपजावे एम बनतुं नथी. अने राग
कारण थईने धर्मरूप कार्य उपजावे–एम कदी बनतुं नथी.
ज भगवान थवानुं कारण छे. भगवान चैतन्य तो आनंदनुं धाम छे, तेमांथी कदी दुःखनी उत्पत्ति थाय नहि.
रागमांथी तो आकुळता अने दुःखनी उत्पत्ति थाय छे, तो ते चैतन्यनो स्वभाव केम होय? अंतरना वेदनथी
चैतन्यने अने रागने अत्यंत जुदा पाडी नाख!
तरफ न वळे ने व्यवहारना आश्रयथी न छुटे तो ते ज्ञानने भेदज्ञान कहेता ज नथी. व्यवहारना विकल्पनो
एक अंश पण चैतन्यमां नथी. एक विकल्पनो अंश पण मने लाभदायक छे–ते मने कंईक पण साधनरूप छे–
एवी बुद्धि ज्यां सुधी रहे त्यां सुधी विकल्पनुं अने ज्ञाननुं भेदज्ञान थतुं नथी. हुं तो चैतन्य छुं, चैतन्यमांथी
चैतन्यभावनी ज उत्पत्ति थाय छे, चैतन्यनो आश्रय करीने तेने कारण बनावतां निर्मळ सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र–सुखरूप कार्य प्रगटे छे.–आ महासिद्धांतनो निश्चय करे तो बहारना बधाय कारण–कार्यनी मान्यताना
भूक्का ऊडी जाय, ने स्वाश्रय तरफ वळ्या वगर रहे नहीं.