कारतक: २४८८ : १७ :
नवा कर्मोनुं बंधन थतुं हतुं. पण ज्यारे चैतन्यनी खरी जिज्ञासा जागी त्यारे श्री गुरु पासे जईने पूछयुं के
प्रभो! आ बंधन क््यारे अटके? त्यारे श्री गुरुए तेने आत्मा अने आस्रवनां भिन्न भिन्न लक्षण
ओळखावीने भेदज्ञाननुं स्वरूप समजाव्युं, ते प्रमाणे समजीने भेदज्ञान प्रगट करतां ते जीवे रागादिने
पोताना स्वभावथी विपरीत जाण्या एटले तेनाथी ते जुदो परिणम्यो, अने चैतन्यस्वभावने ज पोतानो
जाण्यो तेथी तेमां ते तन्मय थईने परिणम्यो; आवुं भेदज्ञाननुं परिणमन थतां आत्माने हवे बंधन थतुं
नथी. ते बंधभावमां प्रवर्ततो ज नथी तो तेने बंधन केम थाय? आवुं भेदज्ञान थया पछी साधक ज्ञानीने जे
अल्प रागादि होय ते ज्ञानना ज्ञेयपणे छे. ज्ञान ते रागनुं कर्ता थईने तेमां प्रवर्ततुं नथी परंतु तेनुं ज्ञाता ज
रहीने तेनाथी निवर्ते छे.
जुओ, आ ज्ञानीनुं कर्ताकर्मपणुं! ज्ञानीने कर्ताकर्मपणुं ज्ञानभाव साथे ज छे, राग साथे तेने
कर्ताकर्मपणुं नथी. ज्ञान ज मारो स्वभाव छे–एम निःशंक जाणतो थको ज्ञानी पोताना ज्ञानभावमां ज वर्ते
छे. आ रीते ज्ञानभावमां ज वर्ततो ते आत्मा दुःखनुं अकारण छे, ने आनंदनुं ज कारण छे, दुःखनुं कारण
अज्ञान हतुं ते तो दूर थई गयुं छे, ने आत्माना स्वभावमां तो दुःख छे नहिं.
पहेलां अज्ञानदशा हती त्यारे–
अपने को आप भूल के हैरान हो गया...
परंतु हवे ज्यां भेदज्ञान थयुं त्यां–
अपने को आप जानके आनंदी हो गया..
भेदज्ञान थयुं त्यां अज्ञान टळ्युं, ज्ञानमां प्रवर्त्यो ने आस्रवोथी निवर्त्यो, दुःखनुं कारण दूर थयुं ने
सुखनुं वेदन प्रगट्युं; आ बधानो एक ज काळ छे. आत्मा अने आस्रवोने लक्षणभेदथी भिन्न भिन्न
ओळखे ते क्षणे ज ज्ञान आस्रवोथी पाछुं फरीने शुद्धज्ञान तरफ वळी जाय छे. जो आस्रवोथी पाछुं न फरे ने
तेमां पहेलांनी जेम ज वर्ते तो ते ज्ञाने खरेखर आस्रवने ज्ञानथी भिन्न जाण्यो ज नथी. अने जो
शुद्धज्ञानमां न वर्ते तो ते ज्ञाने शुद्धज्ञाननो महिमा जाण्यो ज नथी, एटले खरेखर भेदज्ञान थयुं ज नथी.
आस्रवोने त्यारे ज जाण्या कहेवाय के ज्यारे ज्ञान तेनाथी पाछुं फरे; आत्माने त्यारे ज जाण्यो कहेवाय के
ज्यारे ज्ञान तेमां एकाग्र थईने प्रवर्ते. जो आम न होय एटले के जो ज्ञान क्रोधथी जुदुं पडीने पोताना
स्वभावमां न प्रवर्ते तो त्यां क्रोधनुं ने ज्ञाननुं पारमार्थिक भेदज्ञान थयुं ज नथी, अज्ञान ज छे. जे साचुं
भेदज्ञान छे ते तो नियमथी क्रोधादिभावोथी जुदुं ज वर्ते छे, एटले ते ज्ञानथी जरूर कर्मबंध अटकी जाय छे.
जुओ, आवुं ज्ञान तो सामायिक छे; केमके ते ज्ञानना उपयोगमां भगवान आत्मा नीकट वर्ते छे,
अने विषमरूप एवा क्रोधादिभावोथी ते दूर थयुं छे. सम्यग्दर्शन ते पण सामायिक छे, सम्यग्ज्ञान ते पण
सामायिक छे, ने सम्यक् चारित्र ते पण सामायिक छे. स्वभावने अने परभावने भिन्न जाणीने, स्वभावमां
प्रवर्तवुं ने विषमरूप एवा परभावोथी पाछा हठवुं–तेनुं नाम सामायिक छे.
चैतन्यस्वभावनी महत्ता, अने क्रोधादिनी अत्यंत तूच्छता, तेने जे ज्ञान जाणे ते ज्ञान चैतन्यने छोडीने
क्रोधादिमां केम वर्ते? अने जो क्रोधादिमां वर्ते तो तेणे क्रोधादि करतां चैतन्यनी महत्ता जाणी–केम कहेवाय?
रागादिपरभावोने (व्यवहारने) छाती सरसो भेटे छे, ने शुद्धचैतन्य परिणतिरूप आत्मव्यवहारमां वर्ततो
नथी तो ते जीवने व्यवहारमूढ अज्ञानी कह्यो छे; प्रवचनसारनी ९४मी गाथामां तेने पर्यायमूढ–परसमय कह्यो
छे, ते परभावमां ज प्रवर्ते छे. ज्यां भेदज्ञान थयुं त्यां धर्मी पोतानी निर्मळपर्यायरूप चेतनव्यवहारमां ज
प्रवर्ते छे, चैतन्यनी निर्मळपरिणति ते ज चैतन्यनो व्यवहार छे, रागादिपरभावोमां वर्तवुं ते चैतन्यनो
व्यवहार नथी ते तो अज्ञानी जीवोनी व्यवहारमूढता छे. ज्ञान तो तेने कहेवाय के जे आस्रवोथी निवर्तेलुं होय.
कोई कहे के भेदज्ञान थयुं छे पण हजी अमारुं ज्ञान आस्रवोथी निवर्त्युं नथी, हजी आस्रवोमां एवुं ने
एवुं प्रवर्ते छे. तो आचार्यदेव तेने कहे छे के भाई! तने भेदज्ञान थयुं ज नथी. अमे पूछीए छीए के तुं जेने
भेदज्ञान कहे छे ते ज्ञान छे के अज्ञान? जो ते अज्ञान छे तो तो आत्मा अने आस्रवोना अभेदज्ञानथी तेनी
कांई