Atmadharma magazine - Ank 217
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म: २१७
विशेषता न थई, एटले के भेदज्ञान न थयुं पण अज्ञान ज रह्युं. जो भेदज्ञान ते ज्ञान छे, तो ते ज्ञान
आस्रवोमां ज प्रवर्ते छे के तेनाथी निवर्त्युं छे?
आत्मा–सन्मुख थयुं छे के विकार तरफ ज वर्ते छे? जो आस्रवोमां ज वर्ते छे, तो आत्मा अने
आस्रवोनी एकताबुद्धिथी ते ज्ञाननी कांई विशेषता न थई, ते अज्ञान ज रह्युं. अने जो ते भेदज्ञान
आस्रवोथी निवर्तेलुं छे ने शुद्धात्मानी सन्मुख थयुं छे तो ते ज्ञानथी बंधनो निरोध सिद्ध थाय छे. आ
रीते भेदज्ञानथी ज बंधननो निरोध थाय छे, अने ते भेदज्ञान आस्रवोथी निवर्तेलुं ज छे, तेथी एकला
जाणपणारूप एकांत ज्ञाननय, तेमज भेदज्ञान वगरना मंदकषायरूप क्रियानय, ते बंने एकांतनयोनुं
खंडन थयुं. आत्मा अने आस्रव भिन्न छे–एम विकल्प कर्या करे पण आस्रवथी पाछो वळीने स्वभाव
तरफ ढळे नहि तो तेना ज्ञानने ज्ञान कहेता ज नथी. जेणे ज्ञाननी अने रागनी अनेकता न जाणी पण
राग साथे ज्ञाननी एकता मानी ते एकांतज्ञान एटले मिथ्याज्ञान छे; जेणे रागथी भिन्नता ने ज्ञान
साथे एकता करीने, ज्ञान अने रागनी अनेकता जाणी ते अनेकांतज्ञान एटले के भेदज्ञान छे. ते
भेदज्ञान आस्रवोथी निवर्तेलुं छे, ते ज्ञानमां आस्रव नथी. आस्रवमां आस्रव छे पण ज्ञानमां
आस्रव नथी, ज्ञान तो ज्ञानमां ज प्रवर्ते छे, ज्ञान आस्रवमां वर्ततुं नथी.–आवा भेदज्ञानरूप ज्ञानथी
बंधननो निरोध थाय छे.
आ कर्ताकर्म अधिकार छे; कर्ता अने कर्म अभिन्न होय अने एक जातना होय; ज्ञायकस्वभावी
आत्मा छे ते कर्ता छे अने निर्मळ ज्ञानपर्याय प्रगटीने अभेद थई ते तेनुं कर्म छे. आ रीते ज्ञान ज आत्मानुं
कर्म छे; परंतु राग ते आत्मानुं खरेखर कर्म नथी, केम के ज्ञानने अने रागने एकता नथी पण भिन्नता छे;
ज्ञान अने रागनी एक जात नथी पण भिन्न जात छे; ज्ञान तो ज्ञानना पक्षमां छे ने रागादिभावो तो
अज्ञानना पक्षमां छे; आ प्रमाणे जाणनार धर्मी जीवने राग साथे कर्ताकर्मपणुं छूटी गयुं छे. अने राग साथे
कर्ताकर्मपणुं छूटी जतां तेने बंधन पण अटकी जाय छे.
जे ज्ञान रागमां ज तन्मयपणे वर्ते छे तेने ज्ञान कहेता ज नथी, ते तो अज्ञान ज छे. आत्मा अने
राग जुदा छे–एम शास्त्रथी कहे छे पण अंदरमां रागना वेदनथी उपयोगने जुदो पाडीने अंतरमां वाळतो
नथी तो तेनुं ज्ञान ते पण ज्ञान नथी, अज्ञान ज छे. एकला शास्त्रज्ञाननो विकास, के एकली कषायनी
मंदता, ते कांई भेदज्ञाननुं कारण नथी. भले ११ अंग जाणे ने पंचमहाव्रत पाळे, पण जेना अंतरमां एम छे
के आ महाव्रतनो विकल्प मने लाभकारी छे, अथवा शास्त्र तरफनुं ज्ञान ते मारा आत्माने भेदज्ञाननुं
सहायक छे,–तो ते जीव राग अने ज्ञाननुं भेदज्ञान करी शकतो नथी, शास्त्र भणवा छतां अने व्रतादि
पाळवा छतां ते अज्ञानथी रागादि आस्रवोमां ज वर्ती रह्यो छे.
कोई क्रियाजड थई रह्या, शुष्क ज्ञानमां कोई;
माने मारग मोक्षनो, करुणा उपजे जोई.
रागनी मंदतानी क्रिया करे ने तेने ज धर्म माने, पण ते रागथी भिन्न चैतन्यनुं ज्ञान न करे तो ते
जीवो ‘क्रियाजड’ छे; अने भेदज्ञाननी वात कर्या करे पण अंदरमां रागनी मीठास छोडे नहि, राग परिणतिथी
पाछो वळे नहि, तो ते ‘शूष्कज्ञानी’ छे. राग होय ते जुदी वात छे पण ज्ञानीने तेनो रस नथी, तेमां
आत्मबुद्धि नथी, ज्ञानीए पोतानी ज्ञानपरिणतिने ते रागथी पाछी वाळी दीधी छे, जुदी पाडी दीधी छे, माटे
खरेखर ज्ञानी रागथी छुटेलो ज छे; ने तेने बंधन थतुं नथी.
प्रश्न:– अविरत सम्यग्द्रष्टिने पण राग तो थतो जोवामां आवे छे ने अमुक प्रकृतिनुं बंधन तो तेने
पण थाय छे, तो तेने ज्ञानी कहेवो के अज्ञानी?
उत्तर:– भाई, अविरत सम्यग्द्रष्टि ते ज्ञानी ज छे. राग होवा छतां तेनी अंतरद्रष्टि जुदी छे; तेनी द्रष्टिमां
रागनुं स्वामीत्व अंशे पण नथी. ज्ञानमां पण ते रागने अने बंधनने पोताना चिदानंद स्वभावथी जुदा ज
जाणे छे, तेथी ज्ञानी ते रागनो के जडकर्मनो स्वामी
नथी, ते चैतन्यना शुद्धभावनो ज स्वामी छे. जे अल्प बंधन के राग छे तेनुं कारण कांई ज्ञान नथी.
ज्ञानीने जे ज्ञानभाव प्रगट्यो ते तो बंधननुं कारण छे ज नहि. ज्ञाननी पंक्ति जुदी ज छे, ने बंधननी पंक्ति
जुदी छे. साधकने