Atmadharma magazine - Ank 217
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४८८ : १९ :
बंने धारा भिन्न भिन्न चाली जाय छे. तेमां ज्ञानी तो ज्ञानधारानो ज स्वामी छे, ने जे बंधधारा छे
तेने ते पोताना स्वभावथी जुदी ज जाणतो थको तेनो स्वामी के कर्ता थतो नथी. माटे ‘ज्ञानी’ ने बंधन
छे ज नहीं.
आचार्यदेव ज्ञानना महिमाथी कहे छे के अहो! परपरिणतिने छोडतुं अने भेदनां कथनोने तोडतुं जे
आ प्रत्यक्ष स्वसंवेदनरूप भेदज्ञान उदय पाम्युं छे, ते ज्ञानमां हवे विभाव साथे कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनो
अवकाश ज नथी, अने तेने बंधन पण नथी. जुओ, आ ज्ञान!! ज्ञान परभावोथी छूटयुं; अहा, छूटकाराना
पंथे चडेला आ ज्ञानने बंधन केम होय? मतिश्रुत क्षायोपशमिकज्ञान होवा छतां स्वसंवेदन तरफ वळ्‌या त्यां
ते प्रत्यक्ष छे, अने ते ज्ञानने बंधन नथी, तेमां विकारनुं कर्तृत्व नथी. चैतन्यना मध्यबिंदुथी ते ज्ञान ऊछळ्‌युं
छे, तेने केवळज्ञान लेतां हवे कोई रोकी शके नहि.
केवळज्ञान साथे केलि करनारुं –
स्वसंवेदनरूप श्रुतज्ञान
आचार्यदेवने केवळज्ञान तो नथी पण केवळज्ञाननुं
साधक एवुं श्रुतज्ञान छे; तेओ कहे छे के: अमारुं आ अंतरमां
नमेलुं श्रुतज्ञान पण केवळज्ञान जेवुं ज छे; केवळज्ञानीनी जेम
शुद्धआत्माने ते स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी अनुभवे छे. ज्ञान अल्प
होवा छतां ते श्रुतज्ञानने अंतरमां वाळीने अमे केवळ
आत्माने अनुभवीए छीएे तेथी अमे पण ‘केवळी’ छीए.
केवळ आत्माने अनुभवनारुं आ ज्ञान ज केवळज्ञाननुं साधक
छे. माटे, साध्य साथे जेणे केलि मांडी छे एवा स्वसंवेदनश्रुत
ज्ञान वडे एकला आत्माने अनुभवता थका अमे निश्चल
रहीए छीए..बीजी आकांक्षाथी बस थाओ.
आम केवळज्ञाननी साथे संतोए श्रुतज्ञाननी संधि करी
छे.
(प्र. गा. ३३ना प्रवचनमांथी)