Atmadharma magazine - Ank 217
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 22 of 27

background image
कारतक: २४८८ : २१ :
ते राग वडे पण बंधन थाय छे, एटले ज्ञानीने ते रागमां जोर आवतुं नथी. बीजा जीवो कोई माराथी समजी
जाय तेम नथी; अज्ञानी जीवो स्वयं आत्माने नथी जाणता, ने मारा कहेवाथी पण ते नथी जाणता; ते पोते
अज्ञान टाळशे ने ज्ञान करशे त्यारे आत्माने जाणशे.–आवो अभिप्राय तो ज्ञानीने पहेलेथी ज छे, ने ते
उपरांत उपदेशादिनी शुभवृत्तिने पण असमाधिरूप जाणीने छोडवा मांगे छे ने चिदानंदस्वरूपमां ज ठरवा
मांगे छे.
ज्ञानीने पोताना स्वानुभवथी आत्मज्ञान थयुं छे तेमां ते निःशंक छे; जगत माने तो ज पोतानुं
साचुं ने जगत न माने तो पोतानुं खोटुं,–एम नथी. जगतना अज्ञानीओ तो न समजे–तेथी मने शुं?
हुं बीजाने समजावी दउं तो ज मारुं ज्ञान साचुं, बीजा मने स्वीकारे तो ज मारुं ज्ञान साचुं–एम ज्ञानीने
शंका के पराश्रयबुद्धि नथी, अंतरमांथी आत्मानी साक्षी आवी गई छे. वळी ज्ञानीए जाण्युं छे के
अहो! आ चैतन्यतत्त्व तो स्वसंवेदनगम्य ज छे, कोई वाणी के विकल्प वडे ते जणाय तेवुं नथी; तेथी
बीजा अज्ञानी जीवो पोते ज्यारे अंतर्मुख थईने समजशे त्यारे ज तेमने आत्मस्वरूप समजाशे. ज्ञानी
उपदेश आपे त्यां अज्ञानीने एम थाय के ‘आ ज्ञानी बोले छे, ज्ञानी राग करे छे.’–एम वाणीथी ने
रागथी ज ज्ञानीने ओळखे छे, पण ज्ञानीनुं स्वरूप तो रागथी ने भाषाथी पार एकलुं ज्ञानआनंदमय
छे, एने ते ओळखतो नथी.
बीजा स्वीकारे तो मारुं साचुं एवी शंका ज्ञानीने नथी. तेमज हुं बीजाने समजावी दउं एवी बुद्धि
ज्ञानीने नथी, एटले ते तो जाणे छे के बीजाने समजाववानो मारो विकल्प वृथा छे. पोते भाषानुं अवलंबन
तोडीने चैतन्यसन्मुख थया त्यारे आत्माने समज्या, अने बीजा जीवो पण भाषानुं अवलंबन छोडीने
अंतर्मुख थशे त्यारे ज समजशे,–माराथी नहि समजे, एम जाणता होवाथी ज्ञानीने बीजाने समजाववानो
वेग आवतो नथी. अज्ञानी जीवोने तो सभामां उपदेशादिनो प्रसंग आवे ने घणा जीवो सांभळे त्यां उत्साह
आवी जाय छे के घणा जीवोने में समजाव्युं; पण तेने एवुं भान नथी के अरे! आ विकल्प अने वाणी
बंनेथी हुं पार ज्ञायकस्वरूप छुं, अने बीजा जीवो पण वाणी अने विकल्पथी पार ज्ञायकस्वरूप छे, वाणी अने
विकल्प वडे तेओ ज्ञायकस्वरूपने नहि समजी शके. जुओ, आ ज्ञानीनुं भेदज्ञान! उपदेश वडे हुं बीजाने
समजावी शकुं–एवुं ज्ञानी मानता नथी; तेमने तो चैतन्यनुं चिंतन अने एकाग्रता ज परमप्रिय छे. अने
एवी अध्यात्मभावना ज शांतिदातार छे, एनुं नाम समाधि छे.
समक्तिी नानुं बाळक होय ते पण रागथी ने देहादिथी पार पोतानुं स्वरूप जाणे छे, एटले ते
देहादिनी क्रियाथी ने रागथी उदासीन ज रहे छे. जे मूढ प्राणीओमां लायकात न हती तेओ तो साक्षात्
सर्वज्ञदेवना उपदेशथी पण न समज्या. अहो, अंतरनुं आ ज्ञानतत्त्व!! ते हुं बीजाने कई रीते बतावुं? ते
तो स्वसंवेदननो ज विषय छे. आवा भानमां ज्ञानीने बीजा जडबुद्धि जीवोने समजावी देवानी माथाकूट
गमती नथी. जडबुद्धि–मूढप्राणीओ साथे वादविवादना परिश्रमने ते व्यर्थ समजे छे, एटले ते तो पोते
पोतानुं आत्महित साधवामां ज तत्पर छे...आत्महितनुं साधन ज तेने मुख्य छे, उपदेशादिनी वृत्ति आवे
तेनी मुख्यता नथी.
प्रश्न:– ज्ञानी पण उपदेश तो आपे छे?
उत्तर:– अरे भाई? ज्ञानी पोताना ज्ञानानंदस्वरूप सिवाय एक विकल्पना पण कर्ता नथी, ने
भाषाना कर्ता पण नथी; जराक विकल्प आवे छे ने उपदेश नीकळे छे–पण ते वखते ज्ञानीने तो पोताना
चैतन्यतत्त्वनी ज भावना छे.–आवी ज्ञानीनी अंतरभावनाने