Atmadharma magazine - Ank 217
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: २२ : आत्मधर्म: २४८८
तुं ओळखतो नथी, केमके वाणीथी ने रागथी पार एवा चैतन्यतत्त्वनी तने खबर नथी. विकल्प अने
वाणीना चक्करमां ज्ञानी कदी चैतन्यने चूकी जता नथी.
।। प८ ।।
वळी विकल्प ऊठतां ज्ञानी–अंतरात्मा एवो विचार करे छे के:–
यद् बोधयितुमिच्छामि तन्नाहं यदहं पुनः।
ग्राह्यं तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोधये।। ५९।।
हुं जेने समजाववा मागुं छुं ते विकल्पारूढ आत्मा के शरीरादिक हुं नथी; वाणीमां तो विकल्पथी
ने भेदथी कथन आवे छे, तेनाथी कांई आत्मा पकडातो नथी, माटे वाणी अने विकल्प वडे हुं समजावुं?
सामा जीवने पण वाणी सामे जोये तो विकल्प थाय छे ने आत्मस्वरूप तो अनुभवगम्य छे. जे
स्वसंवेदनगम्य आत्मतत्त्व छे ते बीजा जीवोने वाणीथी के विकल्पथी ग्राह्य थाय तेवुं नथी, तो बीजा
जीवोने हुं शुं समजावुं?
आ प्रमाणे तत्त्वज्ञानी अंतरात्मा विकल्पनी ने भाषानी व्यर्थता समजे छे के अरे! जे आनंदनो
अनुभव मने थयो ते हुं बीजाने शब्दो द्वारा कई रीते बतावुं? विकल्प पण आत्माना स्वरूपमां नथी.
आत्मानुं शुद्ध आनंदस्वरूप विकल्पमां के शब्दोमां आवी शकतुं नथी, ते तो स्वसंवेदनमां ज आवे छे. माटे
बीजा जीवोने उपदेश देवाथी मारे शुं प्रयोजन छे? आ रीते धर्मात्मा विकल्प तरफनो उत्साह छोडीने
चैतन्यस्वभावनी सावधानीनो उत्साह करे छे, ने तेमां एकाग्रता करे छे.
जुओ, आवा भानपूर्वक ज्ञानीनो जे उपदेश नीकळे ते जुदी जातनो होय छे, ते आत्माने
अंतर्मुख थवानुं ज कहे छे, बहिर्मुख वलणमां आत्माने किंचित् लाभ नथी...माटे वाणी अने विकल्पनुं
अवलंबन छोडीने परम महिमापूर्वक चैतन्यतत्त्वनुं ज अवलंबन करो...एम ज्ञानी कहे छे.
ज्ञानी थया
पछी उपदेशादिनो प्रसंग बने ज नहि–एम नथी. पण ते उपदेशादिमां ज्ञानीने एवो अभिप्राय नथी के
माराथी बीजो समजी जशे! अथवा तो आ विकल्पथी मारा चैतन्यने लाभ छे एम पण ज्ञानी मानता नथी.
ज्ञानी जाणे छे के बहिरात्मा तो पराश्रयबुद्धिनी मूढताने लीधे अंतरमां वळता नथी तेथी मारा समजाववाथी
पण तेओ आत्मस्वरूप समजशे नहि; ज्यारे ते पोते पराश्रयबुद्धि छोडीने, अंतर्मुख थईने स्वसंवेदन करशे
त्यारे ज ते प्रतिबोध पामशे.
बहिर्बुद्धिवाळा अज्ञानी जीवने जराक जाणपणु थाय त्यां तो तेने एम थई जाय छे के हुं बीजाने
समजावी दउं. एमांय वधारे माणसो सांभळवा भेगा थाय त्यां तो जाणे केटलोय धर्म थई गयो! एम
ते माने छे, एटले एकली वाणी अने विकल्प उपर तेनुं जोर जाय छे, पण वाणीथी ने विकल्पथी पार
आत्मा उपर तेनुं जोर जतुं नथी. जगतना बीजा मूढजीवो पण एनी भाषानी झपटथी जाणे के ए केवो
मोटो धर्मात्मा छे–एम मानी ल्ये छे. पण ए रीते कांई धर्मात्मानुं माप नथी. कोई महा धर्मात्मा
आत्माना अनुभवी होय छतां वाणीनो जोग घणो अल्प होय. मूक केवळी थाय छे, तेमने केवळज्ञान
थवा छतां वाणीनो जोग नथी होतो. वळी कोई धर्मात्माने वाणीनो योग होय ने उपदेशनी वृत्ति पण
ऊठे; परंतु उपदेशनी वृत्ति उपर तेनुं जोर नथी; मारा उपदेशथी बीजो समजी जशे–एवो अभिप्राय
नथी. अरे, अतीन्द्रिय अने शब्दातीत एवुं चैतन्यतत्त्व वाणी वडे केम बतावाय? बोध देवानो विकल्प
ऊठे ते कांई हुं नथी, मारुं चैतन्यतत्त्व ते विकल्पथी पार छे.–आवा चैतन्यनी महत्ता जेणे जाणी नथी
तेने ज एवी भ्रमणा थाय छे के वाणी वडे के विकल्प वडे, चैतन्यतत्त्व समजाई जशे. पण भाई,
चैतन्यना अनुभवमां वाणीनो प्रवेश नथी, विकल्पोनो पण प्रवेश नथी. श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–