
सबसें न्यारा अगम है वो ज्ञानीका देश.
वळवानो तेनो अभिप्राय नथी पण बीजाने समजाववा तरफनो तेनो अभिप्राय छे एटले शास्त्र भणतां के
सांभळतां पण ते पोतानी बहिर्मुख वृत्तिने ज पोषे छे. अहा, अहीं तो धर्मात्मानी केवी ऊंची भावना छे!
जगतथी उदास थईने चैतन्यमां ज समाई जवा मांगे छे.–मारे ने जगतने शुं? वळी चैतन्यतत्त्व पण एवुं
ऊंडुं ऊंडुं गंभीर छे के एम वाणी वडे बीजाने समजावी देवाय–एवुं नथी. अने कदाचित वाणीना निमित्ते
बीजा जीवो समजे तो ते वाणी कांई हुं नथी, तेमज सामो जीव पण ते वाणीनुं अवलंबन राखीने समज्यो
नथी पण वाणीनुं अवलंबन छोडीने चैतन्यनी सन्मुख थयो त्यारे ज समज्यो छे. आ रीते वाणी अने
विकल्प तो व्यर्थ छे, एम जाणीने धर्मीजीव निजस्वरूपमां ज रहेवा मांगे छे. बीजाने समजाववानो विकल्प,
के सामा जीवने सांभळवानो विकल्प, ते विकल्पो चैतन्यस्वरूपथी बाह्य छे, विकल्पो वडे चैतन्यस्वरूप ग्राह्य
थतुं नथी; चैतन्यस्वरूप तो स्वसंवेदन ग्राह्य छे. भगवाननी दिव्यध्वनि पण त्यारे ज धर्मनुं निमित्त थाय छे
के ज्यारे जीव अंतर्मुख थईने स्वसंवेदन करे, आवुं स्वसंवेद्य तत्त्व ते हुं बीजाने कई रीते प्रतिबोधुं?
बाह्यचेष्टामां हुं शा माटे रोकाऊं? वाणी अने विकल्पो तो चैतन्यस्वरूपमां प्रवेशवा माटे व्यर्थ छे एम
जाणीने धर्मीजीव निजस्वरूपनी भावनामां ज तत्पर रहे छे. आवी अध्यात्मभावना ते परम शांतिनी दातार
छे.