समयसारादि शास्त्रो रच्यां छे. आत्मानुं वास्तविक कार्य शुं छे? रागादि विकार ते आत्मानुं वास्तविक कार्य
नथी, अंतरना ज्ञानस्वभावना आश्रये थता जे निर्मळ ज्ञानादि परिणाम ते ज आत्मानुं वास्तविक कार्य छे.
आवा वास्तविक कार्यने जीवे पूर्वे कदी जाण्युं नथी, एने जाण्या वगर अनंतवार चारगतिमां अवतार कर्या.
आत्मानुं सम्यक्स्वरूप जाण्या वगर अनंतवार शुभरागवडे त्यागी थयो, व्रत पाळ्यां, पण ते रागने ज
निजकर्तव्य मानीने संसारमां रखडयो. रागथी पार चैतन्यतत्त्व छे तेनुं सम्यक्दर्शन एक सेकंड पण कदी कर्युं
नथी, सम्यग्दर्शनरूपी धर्म अपूर्व चीज छे, ते केम थाय तेनी आ वात छे.
कर्ताकर्मपणुं नथी. स्वभाव तरफ वळेलो निर्मळभाव ते तो मुक्तिनुं कारण छे, कर्मने तोडवानुं कारण छे, तो
ते भाव कर्मना बंधननुं कारण केम होय..? अहा, सम्यग्दर्शन थयुं त्यां ते जीव कर्मना बंधनुं निमित्त पण
थतो नथी, ते तो ज्ञानभावरूप कार्यने ज करे छे. अहा, सम्यग्दर्शन शुं चीज छे तेना महिमानी जगतना
जीवोने खबर नथी. अने सम्यग्दर्शन पछी अंदरमां आनंदना उभरा आवतां मुनिदशा थाय–तेनी तो शी
वात!! “साधु हूआ सो सिद्ध हुआ.” प्रवचनसारमां शुद्धोपयोगी मुनिने मोक्षतत्त्व कह्या छे. आवी मुनिदशा
पहेलां सम्यग्दर्शन ते पण अपूर्व चीज छे.
वडे चैतन्य दरियामां आनंदनी भरती आवे–एम बनतुं नथी. आवा चैतन्यनी वात जीवे अंतर्लक्ष पूर्वक कदी
सांभळी नथी. भगवाननी सभामां गयो त्यारे पण रागमां रोकाई गयो पण अंदरमां चैतन्यतत्त्वनी वातने
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