Atmadharma magazine - Ank 217
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४८८ःप:
र्शवा दीधी नहि. अंदर चैतन्यनी महत्ता न भासी एटले चैतन्यना भान वगर अनंतवार मनुष्यपणां व्यर्थ
गया.
जुओ, अहीं आचार्यदेव आत्मानी प्रभुता बतावे छे. चैतन्यना ध्येये द्रव्य–गुणनी प्रभुता पर्यायमां
पण प्रगटी जाय छे. द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेमां व्यापक पोतानी प्रभुताने धर्मी जीव जाणे छे ते खरा धीर छे.
‘धीर’ तेने कहेवाय के ध्येय प्रत्ये ‘धी’ ने जे प्रेरे, एटले चिदानंद स्वभावने ध्येय बनावीने तेमां
बुद्धिने जे वाळे–प्रेरे–स्वसन्मुख करे ते ज खरेखर धीर छे. सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माए पोताना उपयोगनी बुद्धिने
स्वध्येयमां जोडी छे तेथी तेओ ज खरा धीर छे; जगतनी गमे तेवी अनुकूळता के प्रतिकूळतामां पण तेओ
चैतन्यध्येयने छोडता नथी, तेमनी बुद्धि चैतन्यध्येयमां ज लागेली छे, तेथी तेओ धीर छे. अज्ञानी
शुभरागने ध्येय बनावीने भले स्थूळ क्रोध न करे, कोई गाळ दे तो पण धीरज राखे,–छतां ते खरेखर धीर
नथी, चैतन्यना ध्येयथी दूर तेनी बुद्धि छे तेथी ते अधीर छे, आकुळ छे. चैतन्यध्येय तरफ बुद्धि वळ्‌या वगर
आकुळता मटे नहि ने धैर्य थाय नहि. ‘धी’ ने ध्येय प्रत्ये प्रेरे तेने ज धीर कह्या छे. चैतन्य तरफ वळेलो
उपयोग अत्यंत धीर अने अनाकुळ छे, गमे तेवी प्रतिकूळताथी पण ते डगतो नथी.
सम्यग्दर्शन ते केवळज्ञान माटेनो कक्को छे. जेम कक्को शिख्या वगर बीजुं भणतर आवडे नहि, तेम
सम्यग्दर्शनरूपी कक्का वगर धर्मनां भणतर होय नहि. केवळज्ञानरूपी स्वघरमां वास्तु करवा माटे सम्यग्दर्शन
ते प्रवेशद्वार छे. भगवान सर्वज्ञदेवोए केवळज्ञान–केवळदर्शन–अनंत आनंद ने अनंत वीर्यरूप स्वचतुष्टय
प्रगट करीने असंख्य चैतन्यप्रदेशी स्वघरमां वास कर्यो छे ते खरुं वास्तु छे. वास्तु करवानी विधि शुं ते अहीं
आचार्य भगवान बतावे छे.
आ चैतन्यस्वभावी आत्मा–जेमां खरुं वास्तु करवानुं छे–तेमां कर्मरज नथी, तेमज ते पोते कर्मरजना
बंधननुं कारण पण नथी. विकारना निमित्ते कर्म बंधाय छे ते देखीने विकारनो कर्ता अज्ञानी एम माने छे के
में आ कर्म बांध्युं. खरेखर कर्मनो कर्ता ते अज्ञानी पण नथी. ज्ञानीने तो मिथ्यात्वादि कर्मनां बंधनमां
निमित्तरूप थाय एवो भाव ज छूटी गयो छे.
शरीर स्त्रीनुं हो के पुरुषनुं हो–तेनी साथे सम्यग्दर्शननो संबंध नथी. आठ वर्षनी बालिका पण
अंदरमां चिदानंद स्वभावनो निर्विकल्प अनुभव करीने सम्यग्दर्शन प्रगट करी शके छे. महाविदेहमां अत्यारे
सीमंधर परमात्मा वगेरे तीर्थंकरो साक्षात् बिराजे छे, त्यां चक्रवर्तीनी नानी नानी आठ वर्षनी कुंवरीओ पण
भगवाननी सभामां जईने धर्मनुं श्रवण करे छे ने सम्यग्दर्शन पामे छे. श्रेणीक राजाए आत्मभान प्रगट
कर्युं ने पछी तीर्थंकरनामकर्म बांध्युं छे, पण त्यां सम्यग्दर्शनना परिणाम कांई ते तीर्थंकरप्रकृतिना बंधनुं
कारण नथी. सम्यग्दर्शन साथेनी भूमिकामां ज तेवी प्रकृति बंधाय छे, छतां ते बंधननुं कारण सम्यग्दर्शनना
परिणाम नथी; धर्मी पोताना आत्माने चैतन्यभावमय ज जाणे छे, ने मारो चैतन्यभाव १४८ प्रकृतिमांथी
कोई पण कर्मनी प्रकृतिना बंधनमां निमित्त पण नथी, एम धर्मी जाणे छे.
अरे. जीव! आवो मनुष्य अवतार मळ्‌यो पण तेमां जो चैतन्यनुं भान न कर्युं तो आ भवचक्रना
आंटा मटवाना नथी. मिथ्यात्वना ऊंधा भावे अनंतवार भवचक्रमां भम्यो. पण एकवार सम्यक्भाननो
भाव प्रगट कर तो अनंतकाळना भवचक्रनो अंत आवी जाय. श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–
बहु पुण्य केरा पूंजथी शुभ देह मानवनो मळ्‌यो,
तो ये अरे! भवचक्रनो आंटो नहि एके टळ्‌यो;
सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो,
क्षणक्षण भयंकर भावमरणे कां अहो! राची रहो?