Atmadharma magazine - Ank 217
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म: २१७
परमां सुख मानतां तारा चैतन्यस्वभावनुं सुख भूलाई जवाय छे. अरे जीवो! आत्माने भूलीने
रागना अने परना कर्तृत्वमां रोकातां तो क्षणे क्षणे चैतन्यनुं भयंकर भावमरण थाय छे, क्षणे क्षणे चैतन्यनी
शांति हणाय छे...आवा भावमरणमां तमे कां रांची रह्या छो? परनुं कर्तृत्व मानतां चैतन्यना भावप्राणनी
हिंसा थाय छे. पैसामांथी, शरीरमांथी, बाह्यविषयोमांथी के शुभरागमांथी पण मने सुख मळशे–एवी जेनी
बुद्धि छे ते जीव चिदानंदस्वभावना सहज सुखने हणी नांखे छे; भाई, तारा चैतन्यतत्त्वमां ज तारुं सुख छे;
ते चैतन्यमां परचीजनुं तो स्वामीत्व नथी ने रागनुं पण स्वामीपणुं नथी.
चैतन्यस्वभावथी जे भ्रष्ट छे एवो अज्ञानी ज विकल्पनो कर्ता थईने एम माने छे के में कर्मने बांध्युं.
आत्मानो स्वभाव तो निर्विकल्प विज्ञानघन छे पण अज्ञानी तेनाथी भ्रष्ट थयो छे ने रागमां ज परायण
थयो छे–विकल्पमां ज मूर्छाई गयो छे, ते ज अज्ञानभावथी कर्मनो निमित्त थाय छे. ज्ञानी तो जाणे छे के शुद्ध
चैतन्यमय एवो हुं कर्मनो कर्ता व्यवहारे पण नथी, निमित्तथी पण नथी. निश्चय स्वभावथी जे भ्रष्ट छे तेने
एवो व्यवहार लागु पडे छे के आणे आ कर्म बांध्युं.–परंतु ते पण उपचार ज छे, परमार्थ नथी. खरेखर
अज्ञानी जीव पण पुद्गल कर्मनो कर्ता नथी.
ज्ञानी धर्मात्मा तो चिदानंदमूर्ति शुद्धात्मामां ज तत्पर छे; अमे तो अमारा ज्ञानपूंजमां ज आरुढ
छीए, रागमां–विकल्पमां अमे आरुढ नथी, तेनाथी तो जुदा छीए. अहा, ज्ञानीनो स्वभाव अलबेलो छे! ते
ज्ञानीने कर्मना कर्तापणानो उपचार पण लागु पडतो नथी. उपादानमां ज्यां विकारनुं कर्तृत्व छूटयुं त्यां कर्मनुं
निमित्तकर्तृत्व पण केम होय? अरे ज्यां शुद्धता प्रगटी त्यां कर्मना कर्तृत्वनुं कलंक केम होय? चैतन्यनी
आराधना थई त्यां धर्मीए कर्म साथेनो संबंध तोडयो ने सर्वज्ञस्वभाव साथे एकतानो संबंध जोडयो. धर्मी
कहे छे के अहो, भगवाननी अमारा उपर प्रसन्नता थई, भगवाननी कृपा थई. सम्यग्दर्शनमां पोताना
आत्मानी प्रसन्नता थई त्यां भगवाननी प्रसन्नतानो पण उपचार आव्यो. जुओ, ज्ञानीने कर्मना
कर्तापणानो उपचार टळ्‌यो, ने भगवाननी प्रसन्नतानो उपचार आव्यो. अज्ञानी तो रागनो कर्ता थईने अने
परनुं कर्तृत्व मानीने भगवानना मार्गथी भ्रष्ट थयो छे, तेना उपर खरेखर भगवाननी प्रसन्नतानो आरोप
पण आवतो नथी. चैतन्यस्वभावथी भ्रष्ट एवा अज्ञानी ज पोताना अशुद्ध उपादानमां विकारनो कर्ता थाय
छे अने तेने ज कर्मना कर्तापणानो व्यवहार लागु पडे छे. ए व्यवहार पण उपचार ज छे; खरेखर कांई
कर्मनुं कर्तापणुं तेने नथी, मात्र पोताना अज्ञानभावनुं ज कर्तापणुं छे.